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*पीव न पावै बावरी, रचि रचि करै श्रृंगार ।*
*दादू फिर फिर जगत सूं, करैगी व्यभिचार ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ भेष का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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साँच चाणक को अंग १४
जग त्रय१ को जोग चले जग मारग,
तासौं खलक्क२ खुशी किन३ होई ।
संसार के सेरे४ सबै लिये स्वामी जु,
काहे को रोष करै कहु५ कोई ॥
तिहिं मधि६ पाग७ मुदित्त जु मेदनी८,
मांड९ मते१० मनसा११ जु मिलोई१२ ।
हो रज्जब प्राण पुलै१३ पृथ्वी पंथि१४,
प्रीति प्रजा परलोक सौं खोई ॥६॥
तीनों१ लोक रूप जगत् के भोगों को प्राप्त करने का योग जगत के मार्ग से ही चलता है अर्थात होता है । तब उस से सांसारिक२ प्राणी प्रसन्न क्यों नहीं३ होंगे ?
संसार के भोगों को प्राप्त करने के सभी मार्ग४ साधु ने अपना लिये हैं, तब कहो५ उस पर कोई क्यों रोष करेगा ?
उसी मार्ग६ में अनुरक्त७ होकर तो पृथ्वी८ के प्राणी प्रसन्न हैं और साधु ने भी संसार९ के मत१० में ही अपनी बुद्धि११ मिलादी१२ है ।
हे सज्जनों ! पृथ्वी में प्राणी के लिये सेतु१३ रूप जो प्रभु प्रीति थी उसको इस भेषधारी पथिक१४ ने प्रभु प्राप्ति रूप परलोक से खोदी अर्थात प्रभु में प्रेम कर के लोगों को प्रभु प्रेम की शिक्षा नहीं दी ।
(क्रमशः)
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