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*दादू जब ही साधु सताइये, तब ही ऊँघ पलट ।
*आकाश धँसै, धरती खिसै, तीनों लोक गरक ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*पद्म टीका*
*इन्दव-*
*जाय जहाँ सब दुष्ट हि देखत,*
*खेचर तैं शबदी हु करी है ।*
*आय कही शिष से तब सेवक,*
*होय सु बाहर जाय घरी है ।*
*कोप भये गुरु पत्तर लेकर,*
*पट्टण पट्टण मार करी है ।*
*संत अनादर को फल देख हु,*
*दण्ड दिये हि प्रजा सु डरी है ॥४२७॥*
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धूंधलीनाथजी नगर में जहाँ भी जाकर अलख जगाते थे, वहाँ ही आयस (आदेश) नाथजी कहकर छेड़छाड़ ही करते थे, भिक्षा कोई भी नहीं देता था । इस प्रकार नगर में जहां तहाँ नाथजी ने दुष्ट ही दुष्ट देखे तब वे खाली ही लौट आये ।
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और शिष्य से कहा- "जिनने तेरी सेवा की है उनको जाकर कहर दे कि वे इसी घड़ी में पट्टण नगर की सीमा से बाहर चले जायें ।" शिष्य ने जाकर कह दिया और वे सब घर के पट्टण नगर की सीमा से बाहर चले गये ।
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पीछे गुरु घूंधली नाथ क्रोध में भरकर तथा भिक्षा का पात्र हाथ में लेकर सोचने लगे- जो ग्राम भिक्षु के पात्र में भिक्षा भी नहीं दे सकता उसे पट्टण ग्राम के आबाद रहने से क्या लाभ है? इस पापी ग्राम का तो नाश होना ही उचित है । ऐसा विचार करके अपने वचन वज्र की मार(चोट) पट्टणपर की । वे बोले- "पट्टण पट्टण सब दट्टण" पट्टण पट्टण सब भूमि में मिलकर नष्ट हो जाय ।" बस सम्पूर्ण पट्टण नगर भूमि में विलीन हो गया ।
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देखो, संतों के अनादर का फल ऐसा ही होता है । जब उस ग्राम को दण्ड दिया गया तब संपूर्ण देश की प्रजा भयभीत होकर न्याय पूर्वक व्यवहार करने लगी तथा संत सेवा में भी प्रवृत्त हुई ॥
(क्रमशः)
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