गुरुवार, 13 मार्च 2025

*४६. परमारथ कौ अंग १/४ *

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*४६. परमारथ कौ अंग १/४*
परमारथ सुकृत फल्या, पत्थर लिया बिगास३ ।
रांम रतन धन नीकस्या, सु कहि जगजीवनदास ॥१॥
३. बिगास=विकास(विस्तार) 
संत जगजीवन जी कहते हैं कि परार्थ अच्छे कर्म से फलित होता है । परमार्थ से तो निष्प्राण पत्थर भी विकसित हो जाते हैं । उनमें राम जैसी मूरत निकलती है, ऐसा संत कहते हैं ।
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परमारथ की बासनां, पूरि रहै सब ठांम ।
जगजीवन स्वारथ सकल, दूरि करै भजि नांम ॥२॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि परमार्थ की सुगंध हर स्थान को भर देती है । प्रभु नाम स्मरण कर स्वार्थ को दूर भगाये़ ।
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परमारथ प्रांणी तिरै, स्वारथ४ बूडै देह४ ।
जगजीवन हरि सेविये, जीवन का फल एह ॥३॥
(४-४. स्वारथ बूडै देह- स्वार्थी जन सांसारिक भोगों में लिप्त रह जाते हैं ॥३॥)
संत जगजीवन जी कहते हैं कि परमारथ से प्राणी भव पार होते हैं । और स्वार्थ से यह शरीर डूब जाता है । परमात्मा की सेवा पूजा ही इस जीवन का उद्देश्य है, फल है ।
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अपणैं अपणैं काम कौं, सावधान सब कोइ ।
जगजीवन परमारथी, हरि जन कहिये सोइ ॥४॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि सब को पता है कि उनका कार्य क्या है ? सब सचेत हैं । जो परमार्थी जीव हैं वे ही सच्चे प्रभु के बंदे हैं ।
(क्रमशः)

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