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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी, @Rgopaldas Tapsvi, बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४६. परमारथ कौ अंग ५/८*
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जो दीजै सो पाइये, जो बोवै सो लूंण ।
जगजीवन हरि नांम नित, जन कहिये अस सूंण ॥५॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि जो देंगे वही मिलेगा, जो बीजेंगे वही उगेगा अतः नित्य ही परभु नाम का स्मरण कर शगुन मनाये ।
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जो प्रांणी जैसा करै, तैसा पावै लोइ ।
कहि जगजीवन रांम रस, हरि भजि पीवै सोइ ॥६॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि जो जैसा करता है वह वैसा ही पाता है । राम रस का पान या आनंद वे ही लेते हैं जो इसका स्मरण करते हैं ।
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अपणैं१ अपणैं कीया की, सब कोई बैसे पालि१ ।
कहि जगजीवन हरि भगति, मिलि रहै रांम संभालि ॥७॥
(१-१. अपणैं अपणैं=सब कोई स्वकृत कर्म के फलभोग के ही अधिकारी होते हैं ॥७॥)
संत जगजीवन जी कहते हैं कि सब जीव अपने अपने कर्मों । का फल भोगते हैं जो स्मरण कर राम संभाले रहते हैं उन्हें ही प्रभु भक्ति मिलती है ।
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देह२ के संबंधि करै, ते सब स्वारथ भोग२ ।
कहि जगजीवन काज पर, खरचैं ते जगि जोग ॥८॥
(२-२. देह के संबंधि करै=शरीर से सम्बद्ध सभी कृत्य ‘स्वार्थ भोग’ ही कह्काते हैं ॥८॥)
संत जगजीवन जी कहते हैं कि देह के सभी संबध से तो सब स्वार्थ के भोग ही पूरे होते हैं । तो परमार्थ पर खर्च करें तो वे संसार मे सच्चा खर्च है ।
(क्रमशः)
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