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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*दादू जीव न जानै राम को, राम जीव के पास ।*
*गुरु के शब्दों बाहिरा, तातैं फिरै उदास ॥*
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*भ्रमविध्वंश ॥*
नेड़ौ ही रे राम ताकौ मारग भूला ।
ऊगवणी केइ आथवणी, यौं ही भ्रमि भ्रमि डूला ॥टेक॥
लोह पारस सदा लावै, पलट्यौ काँही रे ।
जो वो लोह कौ लोह रह्यौ, तौ यौ पारस नाँही रे ॥
आपणा उनहारि भूल्या, भूला अजपाजाप रे ।
सकती लोकाँ मारि कीयौ, सींदरी तैं साप रे ॥
तीनि गुण की ताप जदि की, जीव कौं लागी रे ।
म्रिगत्रिष्णा धाइ धाइ पीयौ, काँही प्यास न भागी रे ॥
मकड़ाणा खाटू बिचैं, जग खोदिवा धायौ ।
बषनां रे गुर ग्यान थैं, घन घरही मैं पायौ ॥४०॥
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हे जीव ! रामजी अत्यन्त ही निकट में प्राप्त है किन्तु तू उसके पाने के रास्ते को भ्रम के कारण भूल गया है । (जैसा पूर्व पद में लिखा गया है, रामजी शरीर में ही प्राप्त है किन्तु अज्ञान के कारण जीव उसको अनुभव नहीं कर पाता है । यही मार्ग को भूलना है ।) कोई पूर्व दिशा और कोई पश्चिम दिशा में परमात्मा का निवास बताते हैं और उसे ढूंढने को तत्तत दिशाओं में जाते हैं किन्तु उनको वहाँ कुछ भी नहीं मिलता है ।
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वे यौंही = व्यर्थ ही भ्रमों से भ्रमित हुए डोलते रहते हैं । लोहे को पारस के सानिध्य में सदैव पलटने के लिये रखते हैं किन्तु वह लोहा किंचित् अंश में भी न बदलकर लोहे का लोहा ही रह जाता है तो जानना चाहिये कि पारस असली पारस नहीं है ।
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जीव अज्ञानावरण के कारण अपने स्वयं का उन्हारि = वास्तविक स्वरूप भूल गया है । इतना ही नहीं वह श्वास-प्रतिश्वास स्वतः ही होने वाले अजपाजाप को करना भी भूल गया है । कुछ निरीह-निर्बल लोगों को मारकर अपने आपको ठीक वैसे ही शक्तिशाली मानने लगता है जैसे कोई रस्सी को मारकर सर्प को मारने का दंभ करे ।
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जब से जीव के तीनों गुणों की ताप लगी है तबही से वह विषय भोगों की ओर वैसे ही दौड़ता है जैसे मरुस्थल में जल के लिये मृग दौड़ता है किन्तु उसे कहीं भी जल रूपी पूर्णानंद की प्राप्ति नहीं होती है जबकि वह विषयभोगों को प्रभूत मात्रा में प्रभूत समय तक भोगता रहता है ।
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वस्तुतः ऐसे लोगों की स्थिति वैसी ही होती है जैसी मकराना और खाटू के बीच के रास्ते को धन के लिये खोदने वालों की होती है जिन्हें पूरा रास्ता खोदने पर एक कोड़ी भी नहीं मिलती किन्तु गुरु द्वारा बताये जाने पर घर में ही सारा धन मिल जाता है । परमात्मा इस शरीर में ही है । उसे गुरुपदिष्ट मार्ग का अनुसरण करके प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये ॥४०॥
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अन्तर्कथा ॥ कोई धनवान व्यक्ति मरने लगा तब उससे उसके पुत्रों ने पूछा कृपया हमें धन बतादें ताकि हम आपके मरने के उपरान्त उसे प्राप्त कर सकें । मरणासंन व्यक्ति ने धन ‘मकराना’ और ‘खाटू’ के बीच में बता दिया । पुत्रों ने मकराना और खाटू गाँव के बीच का सारा रास्ता खोद डाला किन्तु उन्हें एक भी फूटी कौड़ी नहीं मिली ।
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किसी समझदार व्यक्ति से चर्चा करने पर उसने पूरे घर का निरिक्षण किया और एक कमरे को खुदवा दिया । उसमें से धन निकल आया । क्योंकि उस कमरे में एक ओर खाटू तथा दूसरे ओर मकराने के पत्थर लगे हुए थे और बीच में धन था ।
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मरणासंन व्यक्ति ही संसार है । पुत्र ही जीव है । धन ही परमात्मा है । समझदार व्यक्ति ही गरू है । स्वामी रामचरणजी ने लिखा है ~
“जहाँ तहाँ भरिपूरि है, घटि घटि व्यापक सीव ।
रामचरण सतगुरु बिना, भेद न पावै जीव ॥
रामचरण बीजक बिना, जो घर में धन होय ।
यूँ पूरा गुरुदेव बिनि, तत नहिं पावै कोय ॥”
(क्रमशः)
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