शुक्रवार, 14 मार्च 2025

*परिचय ॥*

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*अनहद बाजे बाजिये, अमरापुरी निवास ।*
*जोति स्वरूपी जगमगै, कोइ निरखै निज दास ॥*
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*परिचय ॥*
म्हारै अनहद माँदलियौ बाजै रे ।
अनहद अनहद बाणी बोलै, मेघ तणी धुनि गाजै रे ॥टेक॥
नौ दस सात बहत्तरि कसणी, कारीगरि मढियौ रे ।
दीन्हौं भलौ भाव कौ भोइण, ऊचै सुरि चढियौ रे ॥
पवन ताल म्हारै बिरह रबाबी, इक ताली बावै रे ।
पाँच सहेलियाँ मिलि सर दीन्हौं, मधुरी धुनि गावै रे ॥
प्रेम प्रीति का घूँघर बांध्या, ठमकै पाँव धरै रे ।
इहिं औसर अबिनासी आगै, म्हारौ प्राणिड़ौ निरत करै रे ॥
गोपी ग्वाल बराबरि खेलै, तेज पुंज परकासै रे ।
आतम सौं परमातम हिलिमिलि, रूड़ौ बणियौ रासै रे ॥
ब्रह्मा बिष्न महेसर सुर नर, सकल रह्या बिरमोही रे ।
मधुर मधुर धुनि मुरली बाजै, हरि बोलो हरि बोलो होइ रे ॥
रंग रह्यौ रमिता स्यौं रमिताँ, आतमराम रिझायौ रे ।
बणियौं रास बिवाणैं बैठा, सुर नर कौतिग आयौ रे ॥
रामति रमताँ जो दत लाधौ, सो दत होतो आदी रे ।
बषनां ब्रह्म जीव सौं रामति, दादू के परसादी रे ॥३९॥
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माँदलियौ = गले में पहनने का एक छोटा सा गहना जिसे प्रायः जंतर भी कहा जाता है । प्रायः चांदी को गोलाकार बनाकर उसमें तांत्रिक विधि से तैयार किये गये किसी यंत्र को रखा जाता है । जंतर की सुंदरता को बढ़ाने ले लिये उसके ऊपरि भाग पर कुछ चम्पे, दाने लगा दिये जाते हैं जिससे इसमें आवाज भी होने लगते हैं ।
नौ = नवद्वार । दस = दस इंद्रियाँ । सात = सात धातु । बहत्तरि = ७२ कोठे । कसणी = के संयोग से । कारीगर = परमात्मा । मढियौ = बनाया ।
भलौ भाव = उत्तम भक्ति । भक्ति प्रायः तीन प्रकार की मानी गई है । वैधी = स्वधाभक्ति । रागानुगा-विधि-निषेध से रहित भगवन्नाम जप रूपा ‘रागानुगायां स्मरणस्य मुख्यता’ । भक्तिरसामृतसिंधु । उत्तमा-प्रेमाभक्ति, गोपीप्रेमात्मक भक्ति । यहाँ भलौ भाव कहकर उत्तमाभक्ति का निर्देश किया गया है किन्तु वैधी तथा रागानुगा के पश्चात् ही उत्तमाभक्ति उत्पन्न होती है । अतः इन दोनों का भी यहाँ अध्याहार कर लेना चाहिये ।
भोइण = भावना, बल । किसी पदार्थ को अग्नि से भावना देकर, अथवा अधिक घोटकर भावित किया जाता है । यहाँ भोइण बल के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है ।
चढ़ियौ = बोलने लगा । पवन = श्वास-प्रश्वास । रबाबी = रबाब बजाने वाला, एकतारा को रबाव कहते हैं । बावै = बजाता है । पाँच सहेलियाँ = पाँच इन्द्रियाँ । प्राणिड़ौ = आत्मा, जीव । गोपी = इन्द्रियाँ । ग्वाल-मन । रूड़ौ = सुन्दर, अद्भुत । रासै = रास । बिरमोही = विस्मृत । रंग = आनंद । रमिताँ = रास करते समय । बणियौं = शुरू होने पर । कौतिग = आश्चर्य । रामति = रास में रमताँ = रमते समय । दत = सम्पत्ति, भगवत् प्रेम ।
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मेरे गले में अनहदनाद रूपी मांदलिया बजता है । (अनहदनाद गले में न बजकर सहस्त्रारचक्र में बजता है । जब शब्द जिव्हा से सरककर कंठ में अपना निवास बनाता है तब “कंठाँ सब्द टगटगी लागी । नाड़ि नाड़ि मैं चलै गिलगिली । सुखधारा अति बहै सिलसिली ॥४६॥ मुख सूँ कछू न उचरै बैना । लग्या कपाट खुलै नहिं नैना ॥” ग्रंथ नामप्रताप स्वामी रामचरणजी की वाणी । ) वहाँ से आवाज निकालना प्रायः मुश्किल हो जाता है । निस्सीम, अविछिन्न ध्वनि होती है । मेघ की सी गर्जन-तर्जनमयी ध्वनि होती है ।
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परमात्मा ने नव द्वारों, दस इंद्रियों, सात धातुओं तथा बहत्तर कोठों के मेल से मनुष्य शरीर बनाया है । इसको उत्तमाभक्ति का बल प्रदान किया है जिसमें ही अनहदनाद ऊँचे स्वर में बज रहा है ।
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मेरे अनहदनाद के लिये श्वास-प्रश्वास की ताल को विरह रूपी रबाबी लगातार बजा रहा है । पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ मिलकर उस रबाबी के सुर में सुर मिलाकर मधुर ध्वनि में गाती है ।
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उन्होंने प्रेम-प्रीति के घूंघरे बांध रखे हैं और वे ठुमके मार-मार कर पाँवों को धरती पर रखती है । ऐसा बनाव बनने पर मेरा प्राण = जीव अविनाशी परब्रहम-परमात्मा के समक्ष आनंदमग्न होकर नृत्य करता है । इन्द्रियां, मन सभी हिलमिल खेलते हैं । तेजपुंज = परमप्रकाश रूप परमात्मा का वह प्रकाश होता रहता है । आत्मा और परमात्मा का हिल-मिलकर-कर खेलने का यह रास सर्वथा सुन्दर बन पड़ा है ।
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इस रास को देख-देखकर ब्रह्मा, विष्णु, महेश व अन्यान्य सुर, नरादि सभी विमोहित हो रहे हैं । इस रास स्थल में मुरली की मधुर-मधुर ध्वनि हो रही है तथा ‘हरि-बोलो, हरि-बोलो’ की आवाज निरन्तर सुनने में आ रही है । रमताराम से उक्त रास में रमने में आनंद की सर्जना हुई और मेरा निजात्मा आनंद में सरावोर हो गया ।
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जब रास का प्रारम्भ हुआ तब विमानों में बैठ बैठकर सुर नरादि इस अद्भुत रास को देखने के लिये आये । इस रास को रमते समय जो धन प्राप्त हुआ वस्तुतः वह धन कोई नया नहीं था । वह था तो पुराना ही किन्तु अनुभव उसका अब हुआ । अतः कहने में आ रहा है कि प्राप्त हुआ ।
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(शांकरवेदांतानुसार आत्मानंद सदा से सभी को सर्वकाल में प्राप्त है किन्तु अविद्या के आवरण के कारण उसका अनुभव नहीं होता है । जैसे ही अविद्यावरण का नाश होता है वैसे ही आत्मानंद का अनुभव होने लगता है । वस्तुतः प्राप्ति तो उसकी होती है जो हमारे पास नहीं होता है और हमें दूसरों से प्राप्त होता है । आत्मा तो हमें सर्वत्र सर्वकाल में प्राप्त है । बा, उसे हम पहचान नहीं पाते । जिस समय हम उसे पहचान जाते हैं उसका हमें बोध हो जाता है, बस, उसी समय आत्मानंद करतलगत हो जाता है । बषनांजी यहाँ यही बात कह रहे हैं । यह आनंद तो आदि = प्रारम्भ से ही था किन्तु इसका मुझे तब अनुभव नहीं हुआ था ।) बषनांजी कहते हैं, यह जीव और जीव और सीव का रास = रामति = एकाकार = गुरुमहाराज दादूजी की कृपा के फल से हुआ है ॥३९॥
(क्रमशः)

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