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*दादू कहै सतगुरु शब्द सुनाइ करि,*
*भावै जीव जगाइ ।*
*भावै अन्तरि आप कहि, अपने अंग लगाइ ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*,
*साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*सवैया-*
*भर भार तज्यो भ्रतरी सगरो१,*
*अगरो२ पिछरो३ ब४ नहीं कुछ सांसों५ ।*
*गह्यो अनुराग दुति६ न समाध७ जु,*
*क्षीण शरीर सु लोही न मांसो ॥*
*मनसा मन जीत करी हरि प्रीति,*
*वैराग्य की रीति भिक्षा कियो कांसो ।*
*राघो कहै गुरु गोरख से मिल,*
*यूं कियो माया रु मोह को नासो ॥३१७॥*
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गुरु गोरक्षनाथजी का उपदेश हृदय में भर कर भर्तहरि ने संपूर्ण१ राज्यभार त्याग दिया । अब४ उनको परलोक२ और इस लोक३ सम्बन्धी कोई भी संशय५ नहीं रहा था ।
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आपने एक परमात्मा का ही प्रेम हृदय में ग्रहण किया था । दूसरे६ किसी का भी उपास्य रूप में समादर७ नहीं किया था । तपस्या के द्वारा आपका शरीर क्षीण हो गया था । रक्त और मांस उचित मात्रा में नहीं रहे थे ।
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आपने मन के मनोरथ वा वासना जीतकर हरि से प्रीति की थी और तीव्रतर वैराग्य की रीति अपनाते हुये भिक्षा का ही भोजन८ करते थे ।
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राघवदासजी कहते हैं- उक्त प्रकार गुरु गोरक्षनाथजी से मिलकर भर्तृहरि ने अपने हृदय के मायिक विचार और मोह को नष्ट किया था ॥३१७॥
(क्रमशः)
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