सोमवार, 17 मार्च 2025

उपासना-मन्दिर

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*दादू भावै तहाँ छिपाइए, साच न छाना होइ ।*
*शेष रसातल गगन धू, प्रगट कहिये सोइ ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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श्रीरामकृष्ण उपासना-मन्दिर में बैठकर यही सब बातें कह रहे हैं, केशव आदि भक्तगण चुपचाप सुन रहे हैं । रात के ८ बजे का समय है । तीन बार घण्टी बजी, जिससे उपासना प्रारम्भ हो ।
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श्रीरामकृष्ण - (केशव आदि के प्रति) - यह क्या ? तुम लोगों की उपासना नहीं हो रही है ।
केशव - और उपासना की क्या आवश्यकता ? यही तो सब हो रहा है ।
श्रीरामकृष्ण - नहीं जी, जैसी पद्धति है, उसी प्रकार हो ।
केशव - क्यों, यही तो अच्छा हो रहा है ।
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श्रीरामकृष्ण के अनेक बार कहने पर केशव ने उठकर उपासना प्रारम्भ की ।
उपासना के बीच में श्रीरामकृष्ण एकाएक खड़े होकर समाधिमग्न हो गये । ब्राह्म भक्तगण गाना गा रहे हैं । - 'मन एक बार हरि बोलो, हरि बोलो' – आदि ।
श्रीरामकृष्ण अभी भी भावमग्न होकर खड़े हैं । केशव ने बड़ी सावधानी से उनका हाथ पकड़कर उन्हें मन्दिर में से आँगन पर उतारा ।
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गाना चल रहा है । अब श्रीरामकृष्ण गाने के साथ नृत्य कर रहे हैं । चारों ओर भक्तगण भी नाच रहे हैं ।
ज्ञानबाबू के दुमँजले के कमरे में श्रीरामकृष्ण तथा केशव आदि के जलपान की व्यवस्था हो रही है । वे जलपान करके फिर नीचे उतरकर बैठे । श्रीरामकृष्ण बातें करते करते फिर गाना गा रहे हैं । साथ में केशव भी गा रहे हैं ।
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गाना (भावार्थ) –
"मेरा मनरूपी भ्रमर श्यामा के चरणरूपी नील कमलों में मग्न हो गया । कामादि कुसुमों का विषयरूपी मधु उसके सामने फीका पड़ गया । .....”
“श्यामा के चरणरूपी आकाश में मेरा मनरूपी पतंग उड़ रहा था । पाप की जोरदार हवा से धक्का खाकर उल्टा होकर गिर गया ।...”
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श्रीरामकृष्ण और केशव दोनों ही मतवाले बन गये । फिर सब लोग मिलकर गाना और नृत्य करने लगे । आधी रात तक यह कार्यक्रम चलता रहा ।
थोड़ी देर विश्राम करके श्रीरामकृष्णदेव केशव से कह रहे हैं, "अपने लड़के के विवाह की सौगात क्यों भेजी थी ? वापस मँगवा लेना । उन चीजों को लेकर मैं क्या करूँगा ?"
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केशव मुस्करा रहे हैं । श्रीरामकृष्ण फिर कह रहे हैं - "मेरा नाम समाचार-पत्रों में क्यों निकालते हो ? पुस्तकों या संवादपत्रों में लिखकर किसी को बड़ा नहीं बनाया जा सकता । भगवान जिसे बड़ा बनाते हैं, जंगल में रहने पर भी उसे सभी लोग जान सकते हैं ।
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घने जंगल में फूल खिला है, भौंरा इसका पता लगा ही लेता है, पर दूसरी मक्खियाँ पता नहीं पातीं । मनुष्य क्या कर सकता है ? उसके मुँह की और न ताको । मनुष्य तो एक कीड़ा है । जिस मुँह से आज अच्छा कह रहा है, उसी मुँह से कल बुरा कहेगा । मैं प्रसिद्धि नहीं चाहता । मैं तो चाहता हूँ कि दीन से दीन, हीन से हीन बनकर रहूँ ।"
(क्रमशः)




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