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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी, @Rgopaldas Tapsvi, बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४६. परमारथ कौ अंग ९/१२*
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मैं मेरी सब कोइ करैं, हरि हरि करै न कोइ ।
जगजीवन हरि हरि करै, बड़ा सबन थैं सोइ ॥९॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि मैं ओर मेरा सब कोइ करते हैं यह मेरा है मैं इसका हूँ । हरि मेरे हैं ऐसा कोइ नहीं करता जो हरि हरि करते हैं वे ही जन सबसे बड़े है ।
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परमारथ जिस देह मैं, परम पुरिष सौं रत्त ।
कहि जगजीवन भगतिमत, (सोइ) कबीर गोरख दत्त ॥१०॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि जो देह परमार्थ चाहती है और प्रभु भजन में लीन है । वह भक्ति युक्त बुद्धि कबीर साहब, गोरखनाथ जी महाराज व भगवान दत्तात्रेय जी की देन है ।
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परमारथ जिस देह मैं, ग्यांन ध्यांन गुणवंत ।
कहि जगजीवन सोइ जन, जत सत जा कै वित्त ॥११॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि जिस देह में ज्ञान व्यापता है ध्यान होता है । ऐसी गुणी देह में ही सत्य संन्यास जैसे धन होते हैं ।
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परमारथ जिस देह मैं, पांचौं राखै पाक३ ।
कहि जगजीवन नांव भजि, रांम रसायंन छाक४ ॥१२॥
{३. पाक=पाँचों इन्द्रियाँ संयत कर उनको पवित्र(निर्विकार) रखे ।}
{४. छाक=पूर्ण सन्तोष(तृप्ति) होने तक पीता रहे ।}
संत जगजीवन जी कहते हैं कि जिस देह में परमार्थ से पांचो इन्द्रियां पवित्र होती है । वे ही स्मरण से राम रसायन का पान करते हैं ।
(क्रमशः)
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