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*चोर अन्याई मसखरा, सब मिलि बैसैं पांति ।*
*दादू सेवक राम का, तिन सौं करैं भरांति ॥*
*साभार ~ @Subhash Jain*
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लाओत्सु ने कहा हैः जब मैं कुछ सत्य की बात कहता हूं तो लोग हंसते हैं, उपहास करते हैं; तब मैं निश्चित समझ जाता हूं कि जौ मैंने कहा, वह सत्य ही होना चाहिए। अगर वह सत्य न होता तो लोग उपहास क्यों करते !
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एक फकीर थे, महात्मा भगवानदीन। वे मुझसे बोले कि जब भी मैं लोगों को ताली बजाते सुनता हूं. . . बड़े प्यारे वक्ता थे. . . तो मैं दुःखी हो जाता हूं। क्योंकि जब लोग ताली बजा रहे हैं तो मैंने जरूर कोई गलत बात कही होगी। जो लोगों तक की समझ में आ रही है, वह गलत ही होनी चाहिए। लोग इतने गलत हैं !
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वे बड़े नाराज हो जाते थे, जब उनके बोलने में कोई ताली बजा दे। बड़े नाराज हो जाते थे कि मैंने कोई ऐसी गलत बात कही कि तुम ताली बजाते हो! लोग तो ताली बजाकर प्रसन्न होते हैं, सुनकर प्रसन्न होते हैं कि ताली बजायी जा रही है; वे बड़े नाराज हो जाते थे। वे कहते थे मैं बोलूंगा ही नहीं, अगर ताली बजायी। तुमने ताली बजायी–मतलब कि कुछ गलत बात हो गयी।
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लाओत्सु ठीक कह रहा है कि अगर लोग उपहास न करते तो मैं समझ लेता कि यह सत्य होगा ही नहीं। सत्य का तो सदा उपहास होता है, क्योंकि लोग इतने असत्य हैं। लोग झूठे हैं, इसलिए सत्य पर हंसते हैं। हंसकर अपने को बचाते हैं। उनकी हंसी आत्मरक्षा है।
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“जगत् करे उपहास, पिया का संग न छोड़ै।
प्रेम की सेज बिछाय मेहर की चादर ओढ़ै॥’’
फिकर ही मत करना संसार की; तुम तो अपनी प्रेम की सेज बिछा लेना और परमात्मा की याद करना कि तुम आओ, तुम्हारे लिए सेज तैयार कर रखी है।
“प्रेम की सेज बिछाय, मेहर की चादर ओढ़ै। और करुणा की चादर ओढ़ना। प्रेम का बिस्तर बनाना और करुणा की चादर बना लेना।
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संसार के प्रति करुणा रखना, परमात्मा के प्रति प्रेम रखना–बस ये दो चीजें सध जाएं। हंसनेवालों के प्रति करुणा रखना, नाराजगी मत रखना। अगर नाराजगी रखी तो वे जीत जाएंगे। अगर करुणा रखी, तो ही तुम जीत पाओगे। वे हंसें, तो स्वीकार करना कि ठीक ही हंसते हैं। जहां वे खड़े हैं, वहां से उन्हें हंसी आती है हम पर, ठीक ही है। उनकी स्थिति में ऐसा ही होना स्वाभाविक है। उन पर करुणा रखना।
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“ऐसी रहनी रहै तजै जो भोग-विलासा।’’
यह बड़ा अपूर्व सूत्र है। पलटू कहते हैं कि भक्त के प्रेम में और करुणा में, और परमात्मा के स्मरण में अपने-आप भोग-विलास छूट जाता है।
“ऐसी रहनी रहै तजै जो भोग-विलासा।’’
भोग-विलास छोड़ना न पड़े, छूट जाए–ऐसी रहनी रहे।
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परमात्मा की स्मृति जिसके जीवन में भरी है, उसको कहां भोग-विलास की याद रह जाती है ! वह तो परमभोग भोग रहा है; अब तो छोटे-मोटे भोग की बात ही कहां ! हीरे बरस रहे हों तो कोई कंकड़-पत्थर बीनता है ? अमृत बह रहा हो तो कोई नाली के गंदे पानी को भर कर घर लाता है ? जहां फूलों की वर्षा हो रही हो, वहां कोई दुर्गंध समेटता है ? जहां सच्चा सुख मिल रहा हो वहां क्षणभंगुर सुख की कौन चिंता करता है ?
“ऐसी रहनी रहै तजै जो भोग-विलासा।’’
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परमात्मा की मस्ती में रहे। परमात्मा के आनंद-भाव में रहे। परमात्मा के प्रेम में रहे और जगत् के प्रति करुणा से भरा और सुरति की धारा बहे। बस फिर अपने-आप ऐसी रहनी पैदा हो जाती है, जीवन का ऐसा ढंग, जीवन में ऐसी चर्या पैदा हो जाती है कि भोग-विलास अपने-आप छूट जाते हैं। छोड़ने नहीं पड़ते, छोड़ने पड़ें, तो बात ही गलत हो गयी।
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छोड़ने पड़ें तो घाव रह जाएंगे; छूट जाएं तो बड़ा स्वास्थ्य और बड़ा सौंदर्य होता है। व्यर्थ को छोड़ना पड़े तो उसका अर्थ हुआ कि अभी कुछ सार्थकता दिखायी पड़ती थी, इसलिए चेष्टा करनी पड़ी, छोड़ना पड़ा। व्यर्थ व्यर्थ की भांति दिखायी पड़ जाए, तो फिर चेष्टा नहीं करनी पड़ती, हाथ खुल जाते हैं, व्यर्थ गिर जाता है। आदमी पीछे लौटकर भी नहीं देखता।
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“रहनी रहै तजै जो भोग-विलासा।
मारे भूख-प्यास, याद संग चलती स्वासा॥’’
फिर तो भूख-प्यास तक की याद नहीं रह जाती, क्योंकि श्वास-श्वास में उसी की ही याद चलती है। कहां का भोग, कहां का विलास ! कौन धन को इकट्ठे करने में पड़ता है! कौन पद की चिंता करता है ! कौन आदर-समादर खोजता है ! कौन सम्मान खोजता है ! जिसको उस प्राण-प्यारे की तरफ से मान मिलने लगा, इस संसार में कोई मान अब अर्थ नहीं रखता। “मारे भूख-प्यास, याद संग चलती स्वासा।’’ यह जो श्वास के साथ याद बहने लगती है, इससे भूख-प्यास तक मर जाती है।
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एक तुमने बात कभी खयाल की–बहुत मनोवैज्ञानिक है ! जब तुम दुःखी होते हो, तुम ज्यादा भूखे-प्यासे अनुभव करते हो। जब तम दुःखी होते हो, तब तुम ज्यादा भोजन कर लेते हो। क्योंकि दुःखी आदमी भीतर खाली-खाली मालूम पड़ता है–किसी से भी भर लो, किसी तरह भर लो भीतर का गङ्ढा ! सुखी आदमी कम भोजन करता है। परम सुख में तो भूख भूल ही जाती है। परम सुख में तुम ऐसे भरे मालूम पड़ते हो भीतर, कि कहां भूख, कहां प्यास !
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जब भी सुख घटता है तो आदमी भर जाता है। जब भी जीवन में दुःख होता है, तो आदमी जबरदस्ती अपने को भरने लगता है; खाली-खाली मालूम पड़ता है–“चलो किसी भी चीज से भर लो।’’
ओशो
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