शुक्रवार, 21 मार्च 2025

*साधना ॥*

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*दादू बेली आत्मा, सहज फूल फल होइ ।*
*सहज सहज सतगुरु कहै, बूझै बिरला कोइ ॥*
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*साधना ॥*
तत बेली रे तत बेली रे ।
क्यारा पाँच पचीसौं क्यारी, जतन कियाँ ऊगैली रे ॥टेक॥
एक काँकरी कुई खणैंली, धुणी फूटी सेझै ह्वैली ।
तहाँ अरहट माल बहैली, तिहि धोरै नीर पिवैली ॥
तहाँ पाणति प्राण करैली, जाकै कोमल कूँपल ह्वैली ।
सो तरवर जाइ चढैली, गुरि सींची सदा बधैली ॥
चहुँ दिसि पसरि रहैली, फल लागाँ फूलैली ।
यौं बेली बिरधि करैली, राखी जतन रहैली ॥
तौ बाड़ी सुफल फलैली, गगन माँहि गरजैली ।
अमर नाम बषनां सो बेली, अविनासी फल देली ॥४१॥
परमात्म-नाम रूपी तत्त्व की वल्लरी = वेल पचीस प्रकृतियों सहित पाँच तत्वों से निर्मित शरीर में यत्न = साधना करने से निश्चय ही प्रस्फुटित = फलित होगी; परमात्मा का दर्शन होगा !
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एक काँकरी रूपी विवेक से हृदय में विद्यमान जन्म-जन्मान्तरों के बुरे संस्कारों को हटाकर शुद्ध हृदय रूपी कूप तैयार करना होगा । उसमें (हृदय में) परमात्मा के नामस्मरण संबंधी रूचि रूपी स्त्रोत फूट पड़ेंगे जिनमें होकर परमात्म-प्रेम रूपी जल का आगमन होगा । (सेझै = जल का झरना) उस परमात्मप्रेम में अरहट रूपी मन की माल रूपी वृत्ति बहने लगेगी फिर वह वल्लरी भाव रूपी धोरे में प्रवाहित हुए भगवत्प्रेम रूपी जल को पियेगी ।
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भाव रूपी धोरों के टूटने पर = साधना में विघ्न उपस्थित होने पर निश्चय रूपी प्राणवायु = प्राणी = जीव स्वयं पानी को पाणत = सही दिश में मोड़ेगा । फिर उस वेली में कोंपल रूपी वैधीभक्ति की उत्पत्ति होगी । वह वैधीभक्ति रूपी छोटी सी वल्लरी ही रागानुगाभक्ति के रूप में परिवर्तित होना रूप वृक्ष पर चढ़ जायेगी । फिर वह रागानुगाभक्ति ही गुरुमहाराज के उपदेशों से सिंचित होकर प्रेमाभक्ति के रूप में और बढ़ जायेगी, अगली सीढ़ी में पहुँच जायेगी ।
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वह वल्लरी वृक्ष पर चारों ओर पसर-फैल जायेगी । प्रेमाभक्ति पूरे शरीर, तन-मन में अपना साम्राज्य जमा लेगी । तत्पश्चात् उसमें परमात्मसाक्षात्कार रूपी फूल लगेंगे । वह परमात्मा का सानिध्य प्राप्ति रूपी फूलों से फूल जायेगी । इस प्रकार वेली = रामनाम की साधना वृद्धि को प्राप्त होगी । क्रमशः सीढ़ी दर सीढ़ी आगे बढ़ेगी । यह वल्लरी बराबर यत्न करते रहने पर ही सुरक्षित रहेगी । परमात्मा का सानिध्य तब तक ही रहेगा जब तक हम उसकी भक्ति करते रहेंगे ।
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उक्त प्रकार की साधना करने से शरीर रूपी वाड़ी अच्छे फल रूपी मुक्ति से लद जायेगी और गगन में गर्जना करेगी = अनहदनाद सुनेगी । परमात्मा का अमर नाम ही ऊपर कही गई तत्त्व रूपी वल्लरी है ‘समुझत सरिस नाम अरु नामी । प्रीति परस्पर प्रभु अनुगामी ।’ और उसमें लगने वाला फूल ही अविनाशी परमात्म-प्राप्ति रूप मुक्ति है ॥४१॥
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टिपण्णी : इस पद का अर्थ मंगलदासजी महाराज ने ज्ञानमार्गी पद्धति पर किया है । पाठकों के लाभार्थ हम उसे यहाँ अविकल रूप में दे रहे हैं ।
“इस पद्य में एक प्रकार के आत्मज्ञान परक रूपक का वर्णन किया गया है । तत्त्व रूपी वेलि बहुत यत्न करने से लगेगी । वह यत्न कैसा कि पंच भूतात्मक, आठ प्रकृति (मूल प्रकृति, महान् अहंकार, पञ्च तन्मात्रा) षोडश विकार (पंच भूत, पंच ज्ञानेन्द्रियाँ, पञ्चकर्मेन्द्रियाँ, उभयात्मक मन) और चैतन्य इन पच्चीस क्यार वाले शरीर में निम्नोक्त यत्न किया जाय तो लग सकती है । तत्त्व रूपी बेल के लगने की क्यारी तो ऊपर बतादी ।
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बेल में पानी चाहिये । उसके लिये कूवा, कूवे को खोदने वाला, पानी निकालने वाला, पानी पिलाने वाला; वह सब सामग्री यहाँ कैसी हो वह बतलाते हैं । सत्यासत्य विचार रूपी काँकरी से ज्ञान रूपी कूप खोदा जाय । उसमें निश्चय रूपी सेजा(जल का झरना) निकले ।
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उसमें वृत्ति रूप अरहट पानी निकाले । वृत्ति का तत्त्व की ओर प्रवाह वही धोरा (जल जाने की नाली) उस नाली से आत्म स्वरूप रूपी नीर बहे । प्राणवायु इस नीर को पिलावे । तब उस वेल में कूँपल नवीन अकुंर उत्पन्न हो ।
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गुरु उपदेश रूपी सिंचाई से वह बढ़ेगी = फूलेगी-फलेगी । वह वेलि व्यापक चैतन्य रूपी वृक्ष पर चढ़ेगी । इस प्रकार तत्त्व वेल को उपजाने तथा सुरक्षापूर्वक बढ़ाने पर उससे अविनाशी मुक्ति रूप फल प्राप्त होगा ।
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“अमर नाम बषनां सो वेली” “वह वल्लरी परमात्मा का अमर नाम ही है, के आधार पर हमने पद का अर्थ भक्ति-मार्गानुसार करना ही उचित समझा । वैसे संत भक्ति-मार्गानुयायी ही थे । उनका लक्ष्य परमात्मा से एकाकार होना रहा है । अतः उनके दर्शन में स्वतः ही ज्ञान मार्ग का प्रवेश हो गया है । श्रीकृष्ण गीता में इसकी पुष्टि करते है “ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥”
(क्रमशः)

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