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*दादू कदि यहु आपा जाइगा,*
*कदि यहु बिसरै और ।*
*कदि यह सूक्ष्म होइगा,*
*कदि यहु पावै ठौर ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*परिच्छेद ५, सिमुलिया ब्राह्मसमाज में श्रीरामकृष्ण*
*(१)राम, केशव, नरेन्द्र आदि के संग में*
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आज श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ सिमुलिया ब्राह्मसमाज के वार्षिक महोत्सव में पधारे हैं । ज्ञान चौधरी के मकान में महोत्सव हो रहा है । १ जनवरी १८८२ ई., रविवार, शाम के पाँच बजे का समय ।
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राम, मनोमोहन, बलराम, राजमोहन, ज्ञान चौधरी, केदार, कालिदास सरकार, कालिदास मुखोपाध्याय, नरेन्द्र, राखाल आदि अनेक भक्त उपस्थित हैं ।
नरेन्द्र ने, केवल थोड़े ही दिन हुए, राम आदि के साथ जाकर दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्ण का दर्शन किया है । आज भी इस उत्सव में वे सम्मिलित हुए हैं । वे बीच-बीच में सिमुलिया ब्राह्मसमाज में आते थे और वहाँ पर भजन-गाना और उपासना करते थे ।
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ब्राह्मसमाज की पद्धति के अनुसार उपासना होगी ।
पहले कुछ पाठ हुआ । नरेन्द्र गा सकते हैं । उनसे गाने के लिए अनुरोध करने पर उन्होंने भी गाना गाया ।
सन्ध्या हुई । इँदेश के गौरी पण्डित गेरुआ वस्त्र पहने ब्रह्मचारी के भेष में आकर उपस्थित हुए । गौरी - कहाँ हैं श्रीरामकृष्णदेव ?
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थोड़ी देर बाद श्री केशव सेन ब्राह्म भक्तों के साथ आ पहुँचे और उन्होंने भूमिष्ठ होकर श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया । सभी लोग बरामदे में बैठे हैं; आपस में आनन्द कर रहे हैं । चारों ओर गृहस्थ भक्तों को बैठे देखकर श्रीरामकृष्ण हँसते हुए कह रहे हैं - “गृहस्थी में धर्म होगा क्यों नहीं ? पर बात क्या है जानते हो ? मन अपने पास नहीं है । अपने पास मन हो तब तो ईश्वर को देगा ! मन को धरोहर रखा है, - कामिनी-कांचन - के पास धरोहर । इसीलिए तो सदा साधु-संग आवश्यक है ।
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“मन अपने पास आने पर तब साधन-भजन होगा । सदा ही गुरु का संग, गुरु की सेवा, साधु-संग आवश्यक है । या तो एकान्त में दिन-रात उनका चिन्तन किया जाय और नहीं तो साधु-संग । मन अकेला रहने से धीरे धीरे सूख जाता है । जैसे एक बर्तन में यदि अलग जल रखो तो धीरे धीरे सूख जायगा, परन्तु गंगा के भीतर यदि उस बर्तन को डुबोकर रखो तो नहीं सूखेगा ।
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"लुहार की दुकान में लोहा आग में रखने से अच्छा लाल हो जाता है । अलग रख दो तो फिर काले का काला । इसलिए लोहे को बीच-बीच में आग में डालना चाहिए ।
“ 'मैं करनेवाला हूँ, मैं कर रहा हूँ तभी गृहस्थी चल रही है, मेरा घर, मेरा कुटुम्ब’ - यह सब अज्ञान है । पर ‘मैं प्रभु का दास, उनका भक्त, उनकी सन्तान हूँ’ - यह बहुत अच्छा है ।
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“ 'मैं' - पन एकदम नहीं जाता । अभी विचार करके उसे भले ही उड़ा दो, पर दूसरे क्षण वह कहीं से फिर आ जाता है । जैसे कटा हुआ बकरा - सिर कटने पर भी म्याँ म्याँ - करके हाथ-पैर हिलाता रहता है ।
"उनके दर्शन के बाद वे जिस 'मैं' को रख देते हैं, उसे कहते हैं 'पक्का मैं । - जिस प्रकार तलवार पारसमणि को छूकर सोना बन गयी है । उसके द्वारा अब और हिंसा का काम नहीं होता ।"
(क्रमशः)
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