गुरुवार, 1 मई 2025

*'हिन्दू धर्म' से उधृत*

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*दादू दूजा कहबे को रह्या, अन्तर डारा धोइ ।*
*ऊपर की ये सब कहैं, मांहि न देखै कोइ ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*'हिन्दू धर्म' से उधृत*

अमरीका के अनेक स्थानों में स्वामीजी ने भाषण दिया और सभी स्थानों में उन्होंने यही एक बात कही । हार्टफोर्ड (Hartford) नामक स्थान में उन्होंने कहा था – "... जो दूसरी बात मैं तुम्हे बतलाना चाहता हूँ, वह यह है कि धर्म केवल सिद्धान्तों या मतवादों में नहीं है । ... सभी धर्मों का चरम लक्ष्य है - आत्मा में परमात्मा की अनुभूति । यही एक सार्वभौमिक धर्म है । समस्त धर्मों में यदि कोई सार्वभौमिक सत्य है तो वह है ईश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन करना ।
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परमात्मा और उनकी प्राप्ति के साधनों के सम्बन्ध में विभिन्न धर्मों की धारणाएँ भिन्न भिन्न भले ही हों, पर उन सब में वही एक केन्द्रीय भाव है । सहस्र विभिन्न त्रिज्याएँ भले ही हों, पर वे सब एक ही केन्द्र में मिलती है, और यह केन्द्र है ईश्वर का साक्षात्कार - इस इन्द्रियग्राह्य जगत् के पीछे, इस निरन्तर खाने-पीने और थोथी बकवास के पीछे, इन उड़ते छायास्वप्नों और स्वार्थ से भरे इस संसार के पीछे वर्तमान किसी सत्ता की अनुभूति ।
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समस्त ग्रन्थों और धर्ममतों के अतीत, इस जगत् की असारता से परे वह विद्यमान है, जिसकी अपने भीतर ईश्वर के रूप में प्रत्यक्ष-अनुभूति होती है । कोई व्यक्ति संसार के समस्त गिर्जाघरों में आस्था भले ही रखता हो, अपने सिर में समस्त धर्मग्रन्थों का बोझा लिये भले ही घूमता हो, इस पृथ्वी की समस्त नदियों में उसने भले ही बप्तिस्मा लिया हो, फिर भी यदि उसे ईश्वर दर्शन न हुआ हो तो मैं उसे घोर नास्तिक ही मानूँगा । ..."
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स्वामीजी ने अपने राजयोग नामक ग्रन्थ में लिखा है –
"... सभी धर्माचार्यों ने ईश्वर को देखा था । उन सभी ने आत्मदर्शन किया था, अपने अनन्त स्वरूप का सभी को ज्ञान हुआ था, अपनी भविष्य अवस्था देखी थी, और जो कुछ उन्होंने देखा था, उसी का वे प्रचार कर गये हैं । भेद इतना ही है कि प्रायः सभी धर्मों में, विशेषतः आजकल के, एक अद्भुत दावा हमारे सामने उपस्थित होता है; वह यह है कि इस समय ये अनुभूतियाँ असम्भव हैं; जो धर्म के प्रथम संस्थापक हैं, बाद को जिनके नाम से उस धर्म का प्रवर्तन और प्रचलन हुआ है, केवल उन थोड़े आदमियों को ही ऐसा प्रत्यक्षानुभव सम्भव हुआ था, अब ऐसे अनुभव के लिए रास्ता नहीं रहा, फलतः अब धर्मों पर केवल विश्वास भर कर लेना होगा ।
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मैं इसको पूरी शक्ति से अस्वीकृत करता हूँ । यदि संसार में किसी प्रकार के विज्ञान के किसी विषय की किसी ने कभी प्रत्यक्ष उपलब्धि की है, तो इससे इस सार्वभौमिक सिद्धान्त पर पहुँचा जा सकता है कि पहले भी कोटि-कोटि बार उसकी उपलब्धि की सम्भावना थी, बाद को भी अनन्त काल तक उसकी उपलब्धि की सम्भावना रहेगी । समवर्तन ही प्रकृति का बली नियम है । एक बार जो घटित हुआ है, वह फिर घटित हो सकता है । ..."
(क्रमशः)

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