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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*॥आचार्य गरीबदासजी ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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कहा भी है -
लोभ कभी होता नहीं, संतों के मन मांहिं ।
सांभर अरु अजमेर को, गरीब दीन्हें नाहिं ॥१०८॥ द्द.त. ११
फिर भी बादशाह जहांगीर ने आग्रह पूर्वक प्रार्थना की - भगवन् ! कुछ तो लेने की कृपा सेवक पर अवश्य कीजिये । तब गरीबदासजी ने उसे मौन कराने के लिये अपने आसन का एक कौना उठा कर कहा - “इसके नीचे देखो क्या है ।” बादशाह ने देखो तो उसे दिव्य अश्व दिखाई दिये । बादशाह ने कहा - दो विचित्र घोडे दिखाई दे रहे हैं । तब गरीबदासजी ने कहा - “यदि देना ही चाहते हो तो ऐसे घोडे तुम्हारी इच्छा हो उतने ही दे सकते हो ।”
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यह सुनकर बादशाह मौन हो गया । कारण - वैसे घोडे उसने कभी देखे भी नहीं थे । इससे वह समझ गया कि - संत लेना नहीं चाहते हैं तब ही ऐसा कहते हैं । उक्त प्रकार गरीबदासजी का त्याग देखकर बादशाह जहांगीर को गरीबदासजी अतिप्रिय लगे फिर उसने गरीबदासजी के चरणों में अपना सिर रखकर क्षमा - याचना करते हुये कहा - “भगवन् ! ऐसे घोडे तो न मेरे पास हैं और न मिल ही सकते हैं । अत: देना कैसे संभव हो सकता है । मैं समझ गया हूँ आप लेना नहीं चाहते हैं किन्तु मेरा भला जिससे हो वैसा उपदेश तो आप अवश्य करें । शिक्षा देना तो संतों का मुख्य काम ही है । बादशाह की यह प्रार्थना सुनकर गरीबदासजी महाराज ने बादशाह को उपदेश किया - .
जहांगीर को उपदेश
साखी - साधू संगति अनुसरे, ताका बुरा न होय ।
काल मीच यम दुख टले, गंज सके नहिं कोय ॥
(अनुसरे - अनुसरण करे । गंज - नाश)
सुकृत मारग चालतां, विध्न बचै संसार ।
दुख कलेश छूटे सबै, जे कोइ चले विचार ॥
(क्रमशः)
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