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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१. गुरुदेव का अंग २५/२८*
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सुन्दर सद्गुरु पलक मैं, दूरि करै अज्ञांन ।
मन बच क्रम यज्ञास ह्वै, शब्द सुनैं जो कांन ॥२५॥
इतना ही नहीं, वे सद्गुरु शब्दोपदेश द्वारा मनसा वाचा कर्मणा जिज्ञासु की अविद्या(अज्ञान) का आवरण नष्ट कर देते हैं; वह उस शब्दोपदेश के प्रभाव से उपदेशश्रवण के तत्काल बाद, ब्रह्मचिन्तन में तत्पर हो जाता है ॥२५॥
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सुन्दर सद्गुरु के मिलै, भाजि गई सब भूख ।
अमृत पान कराइ कैं, भरी अधूरी कूख ॥२६॥
जिज्ञासु की मनोदशा : श्रीसुन्दरदासजी सद्गुरु के मिलने पर अपनी मनोदशा का वर्णन कर रहे हैं - सद्गुरु के दर्शन होते ही मेरी सांसारिक विषयवासनाओं की तृष्णा(भूख) सर्वथा नष्ट हो गयी; क्योंकि उनने मुझ को ज्ञानोपदेश रूप अमृतपान कर मेरा खाली पेट(हृदय) कण्ठ तक पूर्ण कर(भर) दिया । (अब उस में तिलभर भी कोई रिक्त स्थान नहीं रह गया कि उसमें कुछ अन्य भोज्य वस्तु रखी जाय ।) ॥२६॥
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सुन्दर सद्गुरु जब मिल्या, पडदा दिया उठाइ ।
ब्रह्म घौंट मांहें सकल, जग चित्राम दिखाइ ॥२७॥
श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - सद्गुरु ने मुझ को दर्शन देते ही मेरे हृदय से अज्ञान का आवरण सर्वथा दूर कर दिया । तथा उन ने राम(निरञ्जन) रस का ऐसा स्वाद लगा दिया कि उस के सम्मान अन्य कोई वस्तु मुझ को रुचिकर ही नहीं लगती । अब तो मुझ को यह समस्त जगत् भी इन्द्रजाल के तुल्य कृत्रिम प्रतीत होता है ॥२७॥
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सुन्दर सद्गुरु सारिखा, कोऊ नहीं उदार ।
ज्ञान खजीना खोलिया, सदा अटूट भँडार ॥२८॥
वे कहते हैं - सद्गुरु के समान मुझको कोई अन्य उदारहृदय पुरुष नहीं मिला, जिनने मेरे लिये अपना अक्षय ज्ञानोपदेश-भण्डार खोल दिया ॥२८॥
(क्रमशः)
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