मंगलवार, 29 जुलाई 2025

योग - क्षेम

                                             

*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*॥आचार्य गरीबदासजी ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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कुछ वर्ष के पश्‍चात् वे संत पुन: नारायणा दादूधाम में गरीबदासजी के दर्शन करने आये । तो वहां उन्होंने देखा कि संत पहले से भी इस समय बहुत अच्छी हो रही है । फिर उनके मन में संकल्प हुआ कि - यह उस पारस का ही प्रताप हो सकता है । फिर एक दिन एकान्त में गरीबदासजी को प्रणाम करके बोले - “स्वामिन ! अब तो आपको संतों के योग - क्षेम की किंचित् भी चिन्ता नहीं करनी पडती होगी ? कारण - पारस आप के पास है, किसी की आशा करनी ही नहीं पडती होगी ? 
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गरीबदासजी ने कहा - कैसा पारस । संत जीने कहा - “मैं आपको भेंट कर गया था, वह आपके पास है । गरीबदासजी ने कहा - उस पत्थर के टुकडे को तो मैंने उसी दिन गरीबदास कूप में डाल दिया था । यह सुनकर संतजी को अति दु:ख हुआ । संतजी ने सोचा - वह देव पदार्थ था, अब उसका मिलता अति कठिन है । मुझे यह ज्ञात नहीं था कि ये इसे ऐसे ही फेंक देंगे । ऐसा जानता तो मैं कभी भी इनको भेंट नहीं करता, पर अब क्या बने । यह सोच कर वे अत्यन्त दु:ख में निमग्न हो गये । 
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गरीबदासजी ने उनको अति दु:खी देखकर कहा - संत जी ! उस पत्थर के टुकडे के लिये आप इतने दु:खी क्यों हो रहे हैं । उसमें ऐसी क्या विषेशता थी ? संतजी ने कहा - भगवन् ! वह लोहे को स्पर्शमात्र से सोना बना देता था । इसीलिये मैंने आपको भेंट किया था कि ये संत इससे सोना बना कर संतो की सेवा इच्छानुसार करते रहेंगे । गरीबदासजी ने कहा - बस लोहे को सोना बनाने की ही विषेशता थी और तो कुछ नहीं थी । संत जी ने कहा - वह कमती थी क्या ? लोहे का सोना तो अन्य प्रकार से बन ही नहीं सकता । 
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तब गरीबदासजी ने उसे अपने लोहे का चिमटा मेरे हाथ में दीजिये । संतजी ने दिया  । गरीबदासजी ने उसे अपने ललाट के लगाकर संतजी को कहा - देखिये यह लोहे का है या सोने का । लोहे के चिमटे को ललाट के लगाते ही सोने का होते देखकर संत समझ गये कि ये तो उच्चकोटि के संत हैं । इन्हें पारस की क्या आवश्यकता थी ? फिर गरीबदासजी ने कहा - संतजी ! हमारा प्रारब्ध ही पारस है । उसी से संतो का और हमारा योग - क्षेम भगवत् कृपा से निर्विध्न होता ही रहता है ।
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फिर तो संतजी का सब दु;ख सहसा ही मन से निकल गया, वे अति प्रसन्न भासने लगे । फिर तो वे इच्छानुसार नारायणा दादूधाम में निवास करके कुछ दिन के पश्‍चात् वहां से विचर गये । उक्त घटना से भी ज्ञात होता है कि गरीबदासजी का ईश्‍वर विश्‍वास महान् था । गरीबदासजी पूर्ण संतोषी संत थे । उन्हें संग्रह करना तो सर्वथा ही अभीष्ट नहीं था ।
(क्रमशः) 

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