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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१. गुरुदेव का अंग ४९/५२*
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स्वयं ब्रह्म सद्गुरु सदा, अमी शिष्य बहु संति ।
दान दियौ उपदेश जिनि, दूरि कियौ भ्रम हंति ॥४९॥
मेरे सद्गुरु स्वयं ब्रह्मस्वरूप हैं, तथा वे अपने प्रिय सन्त शिष्यों को ज्ञानोपदेश द्वारा अमृतमय रामरस पिलाते रहते हैं । उन ने अपने शिष्यों को राम नाम का उपदेश कर उनके अन्तःकरण का द्वैतभ्रमरूप समस्त अज्ञानान्धकार नष्ट कर दिया ॥४९॥
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राग द्वेष उपजै नहीं, द्वैत भाव को त्याग ।
मनसा वाचा कर्मना, सुन्दर यहु बैराग ॥५०॥
वैराग्य का लक्षण : जिस जिज्ञासु को किसी भी सांसारिक विषय के प्रति आसक्ति नहीं होती, राग द्वेष नहीं होता, जो समस्त द्वैतभाव को मनसा वाचा कर्मणा हृदय से त्याग चुका है, महाराज श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं इस संसार में वही सच्चा वैराग्यवान कहलाता है ॥५०॥
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सदा अखंडित एक रस, सोहं सोहं होइ ।
सुन्दर याही भक्ति है, बूझै बिरला कोइ ॥५१॥
भक्ति का लक्षण : जिस साधक के हृदय में निरन्तर निर्विघ्न रूप से सोऽहम (वह मैं ही हूँ) की भावना उठती रहे, इसी भावना को 'भक्ति' कहते हैं । इस भक्ति की यथार्थता(तत्त्व) हजारों में कोई एक ही भक्त ही जान सकता है । (यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः - गीता) ॥५१॥
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अहं भाव मिटि जात है, तासौं कहिये ज्ञान ।
बचन तहां पहुंचै नहीं, सुन्दर सो विज्ञान ॥५२॥
ज्ञान का लक्षण : सद्गुरु के जिस उपदेश से साधक शिष्य का संसार के प्रति अहन्तव(ममत्व) मिट जाय उसी(उपदेश) को 'ज्ञान' कहते हैं ।
विज्ञान का लक्षण : जिस सद्गुरु के उपदेश वचन के खण्डन के लिये किसी तथाकथित पण्डित की तर्कोक्ति समर्थ न हो उसी गुरुवचन को 'विज्ञान' कहते हैं ॥५२॥
(क्रमशः)
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