🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१. गुरुदेव का अंग ४५/४८*
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सुन्दर सद्गुरु श्रम बिना, दूरि किया संताप ।
शीतलता हृदये भई, ब्रह्म बिराजै आप ॥४५॥
मेरे सद्गुरु ने अपने ज्ञानोपदेश द्वारा, अनायास ही बिना किसी श्रम के मेरे समस्त मानसिक सन्ताप दूर कर दिये । इस कारण, अब मेरे हृदय में ब्रह्मज्ञान के उदित होने से अनुपम शीतलता(शान्ति) आ गयी ॥४५॥
परमातम सौं आतमा, जुदे रहे बहु काल ।
सुन्दर मेला करि दिया, सद्गुरु मिले दयाल ॥४६॥
बहुत समय से मेरा यह जीवात्मा अज्ञानावरण के कारण, सर्वव्यापक परमात्मा से स्वयं को भिन्न मान रहा था; परन्तु जब सद्गुरु ने कृपा कर मुझ को ज्ञानोपदेश किया, उसके तत्काल बाद ही यह जीवात्मा स्वयं को परमात्मा से अभिन्न(तद्रूप) मानने लगा ॥४६॥
परमातम अरु आतमा, उपज्या यह अविवेक ।
सुन्दर भ्रम तें दोइ थे, सद्गुरु कीये एक ॥४७॥
श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं- पहले मुझ में अविद्यान्धकार के कारण यह अविवेक = भ्रमात्मक अज्ञान था कि मेरा आत्मा उस(सर्वव्यापक) परमात्मा से भिन्न है; परन्तु कृपालु गुरुदेव ने अद्वैतप्रतिपादक ज्ञानोपदेश के माध्यम से मेरा वह भेदभ्रम सर्वथा दूर कर दिया ॥४७॥
हम जांण्यां था आप थें, दूरि परै है कोइ ।
सुन्दर जब सद्गुरु मिल्या, सोहं सोहं होइ ॥४८॥
हमने पहले समझ रखा था कि हमारी सत्ता उस निरञ्जन निराकार परमात्मा(आप) से पृथक् हैं; परन्तु सद्गुरु के दर्शन होने पर उनके सदुपदेश से हमारा वह भ्रमज्ञान विलुप्त हो गया । और ज्ञाननेत्र खुल जाने से हमें अब 'वह मैं हूँ'- ऐसा ज्ञान हो गया ॥४८॥
(क्रमशः)
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