🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१. गुरुदेव का अंग ५७/६०*
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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१. गुरुदेव का अंग ५७/६०*
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बोलत बोलत चुप भया, देखत मूंदै नैंन ।
सुन्दर पावै एक को, यहु सद्गुरु की सैंन ॥५७॥
इस स्थिति का संकेत : श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - जब कोई उत्कृष्ट साधक उस परमतत्त्व का वर्णन करते हुए चुप(मौन) हो जाता है, अथ वा उस का साक्षात्कार करते करते उसके नेत्र मुंद जाते हैं, इस अनुपम स्थिति की ओर ही सद्गुरु का सङ्केत रहता है ॥५७॥
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मूरख पावै अर्थ कौं, पंडित पावै नांहि ।
सुन्दर उलटी बात यह, है सद्गुरु कै मांहि ॥५८॥
अज्ञानी, ज्ञानी एवं सद्गुरु में विपर्यय : शास्त्रों में अप्रवीण परन्तु साधना में तत्पर अतएव संसार से विमुख मूर्ख तत्त्वज्ञान प्राप्त कर लेता है; परन्तु शब्दज्ञान में प्रवीण कहलाने वाला और दिव्यज्ञान रहित तथाकथित पण्डित उस तत्त्वज्ञान को नहीं समझ पाता - यह विपर्यय(उलटी बात) सद्गुरु के लिये भी समझनी चाहिये । अर्थात् सद्गुरु का शास्त्रज्ञान में प्रवीण होना आवश्यक नहीं है* ॥५८॥ (*क्या इस साषी के माध्यम से श्रीसुन्दरदासजी अपने गुरु के प्रति कोई विशिष्ट संकेत तो नहीं कर रहे )
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जो कोउ विद्या देत है, सो बिद्या गुरु होइ ।
जीव ब्रह्म मेला करै, सुन्दर सद्गुरु सोइ ॥५९॥
विद्यागुरु एवं सद्गुरु में भेद : जो केवल शास्त्र का ज्ञान कराता है वह 'विद्यागुरु' कहलाता है तथा जो जीव एवं ब्रह्म(आत्मा एवं परमात्मा) का अभेद ज्ञान कराता है वह 'सद्गुरु' कहलाता है ॥५९॥
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गुरु शिष्य हि उपदेश दे, यह गुरु शिष व्यवहार ।
शब्द सुनत संसय मिटै, सुन्दर सद्गुरु सार ॥६०॥
साधारण गुरु शिष्य को उपदेश(साधारण शिक्षा) देकर अपना व्यवहार निभाता है; परन्तु सद्गुरु वे हैं जिनका ज्ञानोपदेश सुनते ही शिष्य को तत्त्वज्ञान हो जाय । यही सद्गुरु का वैशिष्ट्य समझना चाहिये ॥६०॥
(क्रमशः)
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