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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*४. बंदगी कौ अंग १/४*
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सुन्दर अंदर पैसि करि, दिल मौं गौता मारि ।
तौ दिल ही मौं पाइये, सांई सिरजनहार ॥१॥
महात्मा श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - रे साधक ! यदि तुम अपने शुद्ध अन्तःकरण में प्रविष्ट होकर, अपने हृदय में गहरा गोता लगाओगे तो तुम वहीं अपने जगत्त्सृष्टा स्वामी को साक्षात् प्राप्त कर लोगे ॥१॥
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सुन्दर दिल मौं पैसि करि, करै बंदगी खूब ।
तौ दिल मौं दीदार है, दूरि नहीं महबूब ॥२॥
यदि तुम उस जगत्त्सृष्टा स्वामी की अपने शुद्धः अन्तःकरण से सेवा करोगे तो इस अन्तःकरण में उस के दर्शन(दीदार) करने में समर्थ हो सकोगे; क्योंकि वह भक्तों का प्रेमी प्रभु अपने भक्तों से कभी दूर नहीं रहता ॥२॥
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जिस बंदे का पाक दिल, सो बंदा माकूल ।
सुन्दर उसकी बंदगी, सांई करै कबूल ॥३॥
महात्मा श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - जिस भक्त का हृदय पवित्र होता है वही भक्त भगवद्दर्शन के लिये उपयुक्त माना जाता है । भगवान् भी उस सच्चे भक्त की सेवा(भक्ति) अवश्य स्वीकार करते हैं ॥३॥
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बंदा सांई का भया, सांई बंदे पास ।
सुन्दर दोऊ मिलि रहे, ज्यौं फूल हु मैं बास ॥४॥
ऐसे सच्चे भक्तों को भगवान् अपना(आत्मीय प्रिय) मानते हैं । तथा भगवान् भी ऐसे भक्तों के हृदय में निरन्तर उसी प्रकार वास करते हैं, जैसे फूलों में गन्ध रहती है ॥४॥
(क्रमशः)
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