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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*४. बंदगी कौ अंग ५/८*
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हर दम हर दम हक्क तूं, लेइ धनी का नांव ।
सुन्दर ऐसी बंदगी, पहुंचावै उस ठांव ॥५॥
यदि कोई सच्चा भक्त प्रतिक्षण प्रभु की कृतज्ञता मानता हुआ उस का नामस्मरण ससम्मान करता है तो ऐसे भक्त की वह भक्ति उसको एक न एक दिन मूल तत्त्व का साक्षात्कार करा ही देगी ॥५॥
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बंदा आया बंदगी, सुनिं सांईं का नांव ।
सुन्दर खोज न पाइये, ना कहुं ठौर न ठांव ॥६॥
महात्मा श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - यदि कोई भक्त किसी साधारण गुरु से प्रभुभक्ति का उपदेश लेकर भक्तिसाधना में लगता है तो उस को, अतिशय परिश्रम के बाद भी, न उस प्रभु का आवासस्थान ही मिलेगा और न उसको उसकी ओर जाने का कोई मार्ग ही मिल पायगा ॥६॥
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उलटि करै जो बंदगी, हर दम अरु हर रोज ।
तौ दिल ही मैं पाइये, सुन्दर उसका खोज ॥७॥
परन्तु यदि(इसके विपरीत) वही भक्त किसी सच्चे गुरु से उपदेश ले कर उस प्रभु की भक्ति में निरन्तर लगेगा तो उस भक्त को अपने हृदय में ही उस प्रभु का आवास मिल जायगा ॥७॥
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सुन्दर बंदा चुस्त ह्वै, जौ पैठै दिल मांहिं ।
तौ पावै उस ठौर ही, बाहिर पावै नांहिं ॥८॥
श्रीसुन्दरदासजी उसी भक्त को उचित पथ का अनुयायी मानते हैं जो अपने आराध्यदेव को स्वहृदय में ही खोजता है; उस प्रभु का उचित स्थान है । हृदय से बाहर खोजने पर वह किसी को कहाँ मिल पायगा ॥८॥
(क्रमशः)

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