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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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५ आचार्य जैतरामजी महाराज
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एक गुसांई सिद्ध का सिद्धि दिखाना
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एक गुसांई सिद्ध ने देश में जहां तहां सुना कि नारायणा दादूधाम के आचार्य जैतराम जी के पास अटूट ॠद्धि सिद्धि है । अत: वह जैतरामजी महाराज की सिद्धि देखने ही उनके पास आया और प्रणामादि शिष्टाचार के बिना ही अपनी सिद्धि दिखाने के लिये उसने अपनी जटा को झ़डका कर पांच सौ मोहरें जैतरामजी महाराज के आगे वर्षा दीं ।
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उसके इस अभिमान को देखकर जैतरामजी महाराज ने सोचा - साधु में सिद्धि का अभिमान होना अच्छा नहीं रहता है । अभिमान से साधु का पतन ही होता है । अत: इसका अभिमान नष्ट करना ही चाहिये । फिर जैतरामजी महाराज ने अपनी गद्दी के एक कोने को ऊंचा उठाकर कहा - संतजी ! इधर देखिये ।
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उसने देखा तो गद्दी के नीचे की सब भूमि सुवर्ण की ही दीखी । उसको देखकर उसका अभिमान नष्ट हो गया । उसने अपने मन में सोचा मैं तो केवल पांच सौ मोहरें ही दिखा सकता था । किन्तु इन्होंने सब भूमि ही सुवर्ण की दिखा दी है । अत: जनता के कथनानुसार इनकी ॠद्धि सिद्धि अटूट ही है ।
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वह बोला - मैंने जैसी कीर्ति सुनी थी वैसी ही देखी भी है । वास्तव में आपके पास ॠद्धि सिद्धिकी कमी नहीं है । अब आप मेरी धृष्टता पर क्षमा कीजिये । कम सिद्धि वालों में अभिमान की मात्रा अधिक ही होती है, यह तो आप जानते ही हैं । अत: अब मैं नत मस्तक होकर क्षमा मांग रहा हूँ । आप तो क्षमाशील ही हैं । अवश्य क्षमा करेंगे ।
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जैतराम जी महाराज ने उस सिद्ध को कहा - संतजी ! इन सिद्धियों के पेच में नहीं पडो, ये सिद्धियां तो प्राणी को परमात्मा से विमुख ही करती हैं । अत: जहां तक हो इनसे दूर रहकर प्रभु का भजन ही करना चाहिये । भजन करने वालों को सिद्धियां बिना इच्छा भी प्राप्त हो जाती हैं किन्तु वे उनका आप के समान प्रदर्शन नहीं करते, आपने तो बिना ही कुछ कहे सुने तत्काल अपनी सिद्धि दिखाना आरंभ कर दिया । यह ठीक नहीं है ।
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अब आपको भविष्य में ऐसा नहीं करना चाहिये । प्रभु परायणता पूर्वक परमात्मा का भजन ही करना चाहिये । सिद्ध ने जैतराम जी महाराज का उपदेश नत मस्तक होकर स्वीकार किया, फिर भोजन का समय होने पर भोजन करके वे विचर गये ।
(क्रमशः)
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