शुक्रवार, 19 सितंबर 2025

*५. पतिव्रत कौ अंग ५/८*

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*५. पतिव्रत कौ अंग ५/८*
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सुन्दर और सराहतें, पतिव्रत लागै खोट । 
बालु सरायौ रेनुका, बंधी न जल की पोट ॥५॥
महात्मा श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - पतिव्रता स्त्री द्वारा भी अपने पति के अतिरिक्त किसी परपुरुष के रूप शील आदि की प्रशंसा करने पर उस को समाज में कलङ्कित ही होना पड़ता है । क्या बालू मिट्टी द्वारा सूक्ष्म रजःकण की प्रशंसा किये जाने पर उससे जल की गाँठ बांधी जात सकती है ! ॥५॥
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सुन्दर जब पतिव्रत गयौ, तब खोई सपतंग । 
मांनहुं टीका नील कौ, बिप्र दियौ निज अंग ॥६॥
यदि कोई स्त्री अपने पति के अतिरिक्त किसी पर पुरुष की प्रशंसा करती है तब उसका पतिव्रत धर्म तो नष्ट हुआ ही, साथ ही उसके पति के सङ्ग अग्नि के सम्मुख सात फेरे लेने भी व्यर्थ ही समझो; जैसे कि किसी ब्राह्मण का अपने ललाट पर नीला टीका लगा लेने से उसका ब्राह्मणत्व क्षीण हो जाया करता है ॥६॥
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सुन्दर जिन पतिव्रत कियौ, तिनि कीये सब धर्म । 
जब हिं करै कछु और कृत, तब ही लागै कर्म ॥७॥
महात्मा श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - जिस स्त्री ने पतिव्रत धर्म का पालन किया है, वह मानो सभी धर्मों का पालन कर चुकी है । परन्तु जब वह पतिव्रत धर्म का त्याग कर अन्य कार्य करने लगती है तो समझो कि वह पाप कर्म में प्रवृत्त हो गयी है ॥७॥
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सुन्दर सब करनी करी, सबै करी करतूति । 
पतिव्रत राख्यौ राम सौं, तब आई सब सूति ॥८॥
यदि कोई साधक उचित या अनुचित कर्म करता हुए एक राम निरञ्जन प्रभु के प्रति सच्ची निष्ठा रखता है तो समझिये कि संसार के सभी कृत्य उस के अनुकूल(सूत) ही हो रहे हैं ॥८॥
(क्रमशः)

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