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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*४. बंदगी कौ अंग १७/२०*
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बंदा आवै हुकम सौं, हुकम करै तहां जाइ ।
सुन्दर उजर करै नहीं, रहिये रजा खुदाइ ॥१७॥
वह भी सच्चा भक्त कहलाता है जो स्वामी की आज्ञा होते ही तत्काल सम्मुख आ जाता है; तथा स्वामी जहाँ जाने की आज्ञा दें वहाँ तत्काल चला जाता है । वह स्वामी की किसी भी आज्ञा का निषेध(उज्र) न करे । उसे तो स्वामी की प्रत्येक आज्ञा का पालन करते हुए यही ध्यान रखना चाहिये कि उस से उसकी किसी भी आज्ञा का उल्लङ्घन न हो ॥१७॥
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सांई बंदे कौं कसै, करै बहुत बेहाल ।
दिल मैं कछु आंणै नहीं, सुन्दर रहै खुस्याल ॥१८॥
भले ही स्वामी, भक्त की वास्तविकता जानने के लिये, भक्त की कठोर परीक्षा लें, या उसे कठोरतम दण्ड दें, तो भी भक्त को अपने हृदय में स्वामी के प्रति अन्यथा(विरुद्ध) विचार नहीं लाने चाहिये । उसे तो वही करना चाहिये जिससे प्रभु प्रसन्न रहें ॥१८॥
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सुन्दर बंदा बंदगी, सदा रहै इकतार ।
दिल मैं और न दूसरा, सांई सेती प्यार ॥१९॥
भक्त को प्रभु की भक्ति सदा समान भाव से करनी चाहिये । ऐसा न हो कि वह स्वामी के प्रति अपने मन में कुछ भाव रखे, और बाहर दिखाने के लिये अन्य कुछ कहे । प्रभुभक्ति में ऐसा द्वैत भाव रखने से भक्त का कार्य सिद्ध नहीं होता ॥१९॥
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मुख सेती बंदा कहै, दिल मैं अति गुमराह ।
सुन्दर सौ पावै नहीं, सांईं की दरगाह ॥२०॥
ऐसा न हो कि कोई मुख से तो स्वयं को 'भक्त' कहे और उस के मन में कूड़ा कपट अहंकार आदि भरा रहे । ऐसे भक्त को भगवान् के श्रीचरणों में कभी स्थान नहीं मिल सकता ॥२०॥
(क्रमशः)
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