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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*४. बंदगी कौ अंग २५/२७*
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तलब करै बहु मिलन की, कब मिलसी मुझ आइ ।
सुन्दर ऐसै ख्वाब मौं, तलफि तलफि जिय जाइ ॥२५॥
तब वह उस से मिलने की इच्छा करती हुई स्वप्न में चिन्ता करने लगती है मेरा पति मुझे पुनः कब मिलेगा । इस प्रकार तड़पते हुए वह विह्वल हो जाती है, उसका चित्त घबराने लगता है ॥२५॥
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कल न परत पल एक हूं, छाडै सास उसास ।
सुन्दर जागी ख्वाब सौं, देखै तौ पिय पास ॥२६॥
उस को इस स्थिति में एक क्षण भी शान्ति नहीं मिल रही है । अतः वह इस फलस्वरूप ऊँचे ऊँचे श्वास ले रही है । परन्तु वह ज्यों ही स्वप्न से जगी उस को उस का पति समीप ही सोया हुआ मिल गया ॥२६॥
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मैं ही अति गाफिल हुई, रही सेज पर सोइ ।
सुन्दर पिय जागै सदा, क्यौं करि मेला होइ ॥२७॥
तब उस को ज्ञान हुआ कि अरे ! यह तो मैं ही भ्रम में थी; क्योंकि मैं निद्रा (अज्ञानावरण) के वशीभूत हो गयी थी । महात्मा श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - ऐसे पति-पत्नी का मिलन कैसे हो सकता है कि जिस का पति जागता रहे और स्वयं निद्रा के वशीभूत हो जाय ! ॥२७॥
(क्रमशः)

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