सोमवार, 8 सितंबर 2025

३. विरह कौ अंग ४९/५२

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*३. विरह कौ अंग ४९/५२*
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सुन्दर बिगसै बिरहनी, मन मैं भया उछाह । 
फूल बिछाऊं सेजड़ी, आज पधारें नाह ॥४९॥
महात्मा श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - आज विरहिणी अतिशय प्रमुदित होकर फूली नहीं समा रही है । वह अभिनव उत्साह से भी सम्पन्न है । वह अपनी शय्या को सुगन्धमय फूलों से सजा रही है; क्योंकि उसके प्राणनाथ बहुत समय बाद उसके घर पधारने वाले हैं ॥४९॥
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सुन्या संदेसा पीव का, मन मैं भया अनंद । 
सुन्दर पाया परम सुख, भाजि गया दुख दंद ॥५०॥
जब से उसने आज अपने प्रियतम के आगमन का सन्देश सुना है उस का हृदय आनन्दविभोर हो गया है । सन्देश-श्रवण के बाद से ही उसके मन में परम सुख की अनुभूति हो रही है ॥५०॥
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दया करहु अब रामजी, आवौ मेरै भौंन । 
सुन्दर भागै दुःख सब, बिरह जाइ करि गौंन ॥५१॥
महात्मा श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - हे राम जी ! अब आप मेरे हृन्मन्दिर(भवन) में पधारिये । आप के पधारने के साथ ही मेरे सभी सांसारिक दुःख दूर हो जायेंगें तथा इतने समय के आपके विरह से उत्पन्न क्लेश भी सर्वथा सर्वदा के लिये विनष्ट हो जायगा ॥५१॥
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अब तुम प्रगटहु रामजी, हृदै हमारै आइ । 
सुन्दर सुख संतोष ह्वै, आनंद अंग न माइ ॥५२॥
इति बिरह कौ अंग ॥३॥
हे प्रभो ! आप मेरे हृदय में साक्षात् प्रकट होकर मुझे दर्शन दें । इस से मुझे अतिशय सुख एवं सन्तोष की इतनी अधिक अनुभूति होगी कि वह मेरे शरीर में समा भी नहीं पायगी ॥५२॥
इति विरह का अंग सम्पन्न ॥३॥
(क्रमशः)

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