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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*४. बंदगी कौ अंग २१/२४*
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सुन्दर ज्यौं मुख सौं कहै, त्यौं ही दिल मैं जाप ।
सोई बंदा सुरखरू, सांई रीझै आप ॥२१॥
"कहै कुछ, करै कुछ" वाले भक्त को महात्मा श्रीसुन्दरदासजी महत्त्व नहीं देते । वे कहते हैं - भक्त अपने मुख से जिस आराध्य देव का नाम लेता है उसी के नाम का हृदय में जप करे । तभी वह लोक में सम्मानास्पद(= सुर्खरू) होता है । तथा स्वयं प्रभु भी उसी पर प्रसन्न हो पाते हैं ॥२१॥
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कै सांई की बंदगी, कै सांई का ध्यांन ।
सुन्दर बंदा क्यौं छिपै, बंदै सकल जिहांन ॥२२॥
जो भक्त प्रभु की नामसाधना द्वारा निरन्तर भक्ति करता है या ध्यानयोग द्वारा उसी के चिन्तन में समाहित रहता है - ऐसे ये दोनों ही प्रकार के साधक संसार में छिपे नहीं रह सकते । समस्त संसार इन दोनों की पूजा करता है, सम्मान करता है ॥२२॥
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बहुत छिपावै आप कौं, मुझे न जांणै कोइ ।
सुन्दर छांना क्यौं रहै, जग मैं जाहर होइ ॥२३॥
सच्चा भक्त स्वयं को संसार से कितना ही छिपावे, परन्तु वह छिपा नहीं रहता; अपितु, अन्त में भक्त के रूप में प्रसिद्ध(जाहिर) हो ही जाता है ॥२३॥
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औरत सोई सेज पर, बैठा खसम हजूर ।
सुन्दर जान्यां ख्वाब मौं, खसम गया कहुं दूर ॥२४॥
कभी कभी पति के साथ शय्या पर सोई हुई किसी स्त्री को स्वप्न में ऐसा प्रतीत होता है कि उसका पति कहीं दूर चला गया ! ॥२४॥
(क्रमशः)
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