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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*७. काल चितावनी कौ अंग १३/१६*
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मेरी मेरी करत है, तोकौं सुद्धि न सार ।
काल अचानक मारि है, सुन्दर लगै न बार ॥१३॥
तू सांसारिक वस्तुओं के लिय व्यामोह करता हुआ उन में ममत्व बांध रहा है: परन्तु तुं अपनी वास्तविकता पर न कभी चिन्तन करता है, न विचार । इसी बीच, तेरी मृत्यु आकर तुझे मार देगी । इस में उसको कुछ भी विलम्ब नहीं लगेगा ! ॥१३॥
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मेरै मन्दिर माल धन, मेरौ सकल कुटुम्ब ।
सुन्दर ज्यौं कौ त्यौं रहै, काल दियौ जब बंब ॥१४॥
तूं अपने जिस माता पिता आदि कुटुम्ब में, घर द्वार में, चल अचल सम्पत्ति में ममत्व दिखा रहा है, वह सब कुछ उस समय यहीं रह जायगा जब तेरी मृत्यु, तेरे सम्मुख आकर, तुझ को पुकारेगी ॥१४॥
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सुन्दर गर्ब कहा करै, कहा मरौरै मूंछ ।
काल चपेटौ मारि है, समझि कहूं के भूंछ ॥१५॥
तूं इन सांसारिक वस्तुओं के स्वत्व पर क्या अभिमान कर रहा है ! तथा इन के कारण गर्व करता हुआ अपनी मूंछ क्या मरोड़ रहा है ! अरे मूर्ख ! तूं उस समय का स्मरण कर, जब तेरी मृत्यु आकर तुझ पर झपट्टा(या थप्पड़) मारेगी ॥१५॥
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यौं मति जानै बावरे, काल लगावै बेर ।
सुन्दर सबही देखतें, होइ राख की ढेर ॥१६॥
अरे पागल ! तूं यह न समझ कि किसी की मृत्यु आने में विलम्ब लगा करता है । हम तो ऐसे सभी प्राणियों को अपनी आंखों के सामने ही राख की ढेरी(राशि) बना हुआ देख रहे हैं ॥१६॥
(क्रमशः)
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