मंगलवार, 14 अक्टूबर 2025

*६. उपदेश चितावनी कौ अंग ४९/५२*

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*६. उपदेश चितावनी कौ अंग ४९/५२*
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सुन्दर सुख की चाह करि, कर्म करे बहु भांति । 
कर्मनि कौ फल दुःख है, तूं भुगतै दिन राति ॥४९॥
यद्यपि सभी प्राणी सुख की इच्छा से ही सब कार्य आरम्भ करते हैं; परन्तु सभी कर्म परिणाम में दुःखदायी होते हैं । उन ही दुःखदायी कर्मों का परिणाम तूँ दिन रात भोग रहा है ॥४९॥ 
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तैं नर सुख कीये घने, दुख भोगये अनंत । 
अब सुख दुख कौ पीठि दें, सुन्दर भजि  भगवंत ॥५०॥ 
इसी प्रकार, सभी प्राणी अपने अपने विविध जन्मों में किये गए कर्मों के फलस्वरूप ये अनंत सुख दुःख भोग रहे हैं । अब तूं इन क्षणिक सुखदुख की प्राप्ति का भ्रम सर्वथा त्याग कर प्रभु में लग जा ॥५०॥   
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दीया१ की बतियां कहै, दीया किया न जाइ ।
दीया करै सनेह करि, दीयें ज्योति दिखाइ ॥५१॥
संसार केवल दीपक(ज्ञान) की बात करता है, परन्तु दीपक का पूर्ण निर्माण नहीं कर पा रहा । दीपक की वास्तविकता स्नेह(तैल) से मानी जाती है; क्योंकि दीपक में स्नेह होने पर ही वह संसार को ज्योति(प्रकाश-ज्ञान) दिखा पाता है ॥५१॥ 
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दीयें ते सब देखिये, दीये करौ सनेह ।
दीये दसा प्रकासिये, दीया करि किन लेह ॥५२॥ 
किसी भी दीपक(के प्रकाश) से सभी ओर की वस्तु को तभी देखा जा सकता है जब उस में स्नेह(तैल) डालोगे । तूं भी अपने दीपक में स्नेह का प्रयोग क्यों नहीं करता ! (अर्थात् प्रेमा भक्तिपूर्वक भगवद्भजन क्यों नहीं करता) ॥५२॥
(क्रमशः)

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