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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*७. काल चितावनी कौ अंग २१/२४*
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सुन्दर तौ तूं उबरि है, समरथ सरनैं जाइ ।
और जहां जहां तूं फिरै, काल तहां तहां षाइ ॥२१॥
श्रीसुन्दरदासजी महाराज कहते हैं - अब तो उस मृत्यु से तेरे उद्धार का एक ही उपाय है कि तूं अपनी रक्षा के लिये किसी समर्थ का शरणागत हो जा; जो उस मृत्यु से तेरी रक्षा कर सके । अन्यथा तूं जहाँ भी जायगा काल(मृत्यु) वहाँ भी तेरा पीछा ही करेगा ॥२१॥
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सुन्दर अपनौ राम तजि, जाइ और के भौंन ।
काल गहै जब कंठ कौं, तबहि छुडावै कौंन ॥२२॥
अरे साधक ! यदि तूं अपने इष्टदेव निरञ्जन निराकार प्रभु का त्याग कर किसी अन्य देवता के मन्दिर में जायगा तो मृत्यु आकर जब तेरा कण्ठ पकड़ेगी तब तेरी रक्षा के लिये कौन आगे आयगा ! ॥२२॥
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सुन्दर राखै कौंन कौं, संचि संचि धन माल ।
तेरै संग चलै न कछु, खोसि लेहिंगे खाल ॥२३॥
अरे प्राणी ! तूं कोड़ी कोड़ी जोड़ कर यह अगणित सम्पत्ति किसके लिये एकत्र कर रहा है ! अरे ! ये तो यहां से जाते समय तुम्हारे शरीर का चर्म भी नोच नोच कर खाने को तय्यार बैठे हैं ॥२३॥
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सुत कलत्र माता पिता, भइया बंधु समेत ।
सुन्दर सब कौं देखते, काल ग्रास करि लेत ॥२४॥
अरे भाई ! यहाँ सत्य बात यह है कि तेरे इन माता पिता भाई बन्धु पुत्र पत्नी आदि सब के देखते हुए ही यह मृत्यु तुम को यहाँ से उठा ले जायगी, ये उस का कुछ भी विरोध न कर पायेंगे ॥२४॥
(क्रमशः)

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