गुरुवार, 30 अक्टूबर 2025

*७. काल चितावनी कौ अंग ३३/३६*

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*७. काल चितावनी कौ अंग ३३/३६*
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चन्द सूर तारा डरै, धरती अरु आकाश । 
पांणी पावक पवन पुनि, सुंदर छाडी आस ॥३३॥
इसी प्रकार, चन्द्र, सूर्य, पृथ्वी, आकाश, जल, अग्नि एवं वायु आदि भी उसको देखते ही अपने जीवन की आशा त्याग देते हैं ॥३३॥
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सुन्दर डर सुनि काल कौ, कंप्यौ सब ब्रह्मांड । 
सागर नदी सुमेर पुनि, सप्त दीप नौ खंड ॥३४॥
अधिक क्या कहें, तुम यह समझ लो कि समस्त ब्रह्माण्ड उस मृत्यु का नाम सुनते ही सागर, नदी, सुमेरु पर्वत, सातों द्वीप, नव खण्ड काँपने लगते हैं ॥३४॥
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साधक सिद्ध सबै डरे, तपी ऋषीश्वर मौन । 
योगी जंगम बापुरे, सुंदर गिनती कौंन ॥३५॥
साधक, सिद्ध, ऋषि, मुनि, योगी, जंगम आदि सभी समर्थ भी उस का नाम सुनते ही भय से कांपने लगते हैं । तब उस के सामने हम तुम जैसे निरीह प्राणियों की तो बात ही क्या है ! ॥३५॥
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एक रहै करता पुरुष, महाकाल कौ काल । 
सुन्दर वहु बिनसै नहीं, जांकौ यह सब ख्याल ॥३६॥
इनमें केवल एक इस सृष्टि के कर्ता निरञ्जन निराकार प्रभु अवशिष्ट रहते हैं जिन से वह महाकाल(महामृत्यु) भी भय मानता है, तथा उन का आदेश मानने के लिये वह सदा सर्वथा सन्नद्ध रहता है* ॥३६॥
(*श्रीसुन्दरदासजी के इन वचनों को श्रीदादूवाणी ने इस प्रकार प्रमाणित किया है – 
दादू' सब जग कंपै काल थैं, ब्रह्मा विषनु महेस । 
सुर नर मुनि जन लोक सब, सर्ग रसातल सेस ॥ 
चंद सूर धर पवन जल, ब्रह्मंड खंड परवेश ।
सो काल डरे करतार तैं, जै जै तुम आदेश ॥*)
(क्रमशः)

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