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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*७. काल चितावनी कौ अंग २५/२८*
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जौर चलै कहि कौंन कौ, सब कुटंब घर मांहिं ।
सुन्दर काल उठाइ ले, देखत ही रहि जांहिं ॥२५॥
यद्यपि तुम्हारी मृत्यु के समय समस्त कुटुम्ब तुम्हारे सम्मुख बैठा रहता है । उनके देखते ही देखते वह तुमको उठा ले जाती है; परन्तु ये सब उस का कोई विरोध नहीं कर पाते ॥२५॥
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सुन्दर पौन लगै नहीं, राख्यौ तहां छिपाइ ।
काल पकरि कै केस कौं, बाहरि नाख्यौ आइ ॥२६॥
मृत्यु के समय तुम्हारे सम्बन्धी जन भले ही ऐसे स्थान पर रखें जहाँ वायु का प्रवेश भी न हो, परन्तु तुम्हारी मृत्यु तुम्हें वहां से खींच कर बाहर लाकर पटक देगी ॥२६॥
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काल ग्रसै सब सृष्टि कौं, बचत न दीसै कोइ ।
सुन्दर सारे जगत मैं, तोबह तोबह होइ ॥२७॥
महात्मा श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - रे प्राणी ! वह मृत्यु केवल तुम्हारे साथ ही ऐसा व्यवहार करती हो - ऐसी बात नहीं है; अपितु वह सभी प्राणियों के साथ ऐसा ही व्यवहार करती है । सब को खा जाती है । उस का नाम सुनते ही सब 'त्राहि त्राहि'(रक्षा करो, रक्षा करो) पुकारने लगते हैं ॥२७॥
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सुन्दर घर घर रोवणौं, पर्यौ काल कौ त्रास ।
केइक जारन कौं गये, फिर केइक कौ नास ॥२८॥
इस मृत्यु के आने पर प्रत्येक घर में रुदन ही सुनायी देता है, ऐसा करते हुए कुछ लोग किसी मृतक को जलाने के लिये ले चलते हैं, और इतने ही काल में वहाँ किसी दूसरे प्राणी की मृत्यु हो जाती है ॥२८॥
(क्रमशः)

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