शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2025

*७. काल चितावनी कौ अंग ३७/४०*

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*७. काल चितावनी कौ अंग ३७/४०*
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सुन्दर उठतें बैठतें, जागत सोवत काल । 
निर्भय कोइ न रहि सकै, काल पसार्यौ जाल ॥३७॥
महाराज श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - प्रत्येक प्राणी को उठना, बैठना, सोना, जागना आदि सब क्रियाओं में मृत्यु का भय है । इस मृत्यु ने संसार में अपना इतना विशाल विस्तार फैला रखा है कि कोई निर्भय होकर नहीं रह सकता ॥३७॥
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सुन्दर खाते पीवते, चलत फिरत डर होइ । 
सबही कौ भै काल कौ, निर्भय नाहीं कोइ ॥३८॥
खाते पीते समय, चलते फिरते समय प्राणी को सदा मृत्यु का भय बना रहता है । कोई निर्भय होकर नहीं बैठता । सभी प्राणी उसके भय से भीत हैं ॥३८॥
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सुन्दर सुनतें देखतें, लेतें देतें त्रास । 
यौं ही मुख सौं बोलतें, निकसि जात है स्वास ॥३९॥
इसी प्रकार सभी प्राणियों को सुनना, देखना, लेना देना आदि क्रियाओं के समय भी मृत्यु का भय बना रहता है । पता नहीं, कब शरीर से यह श्वास निकल जाय ॥३९॥
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जगत जोइ जो कृत करै, सो सो भय संयुक्त । 
सुंदर निर्भय रामजी, कै कोई जन मुक्त ॥४०॥
कहने का तात्पर्य यह है कि प्राणी जो भी कृत्य करता है उन सब में मृत्यु का भय सम्पृक्त है । इस भय से केवल एक निरञ्जन निराकार प्रभु ही मुक्त हैं । या कोई उसका अनन्य भक्त इस भय से मुक्त हो सकता है ॥४०॥
(क्रमशः)

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