🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
.
*६. उपदेश चितावनी कौ अंग ४५/४८*
.
सुन्दर ठग्यौ अनेक बर, साबधान अब होह ।
हीरा हरि कौ नाम लै, छाडि बिषै सुख लोह ॥४५॥
अरे भाई ! तूं यहां पहले बहुत बार ठगा चुका, अब उस से सावधान हो जाना ही तेरे लिए हितकर है । अब तो तुझे विषयभोगरूप लोह का परित्याग कर, भगवद्भजन रूप हीरा की ही खरीद करनी चाहिये ॥४५॥
.
सुन्दर सुख कै कारनै, दुःख सहै बहु भाइ ।
को खेती को चाकरी, कोइ बणज कौं जाइ ॥४६॥
तीन सांसारिक कृत्य : अरे ! कृत्रिम सुख की प्राप्ति के लोभ में तुमने पहले जन्मों में बहुत दुःख सह लिये हैं । १. कभी तुमने यहाँ खेती की, २. कभी किसी की नौकरी की, ३. कभी तुमने विविध प्रकार का वाणिज्य(व्यापार) किया ॥४६॥
.
पराधीन चाकर रहै, खेती मैं संताप ।
टोटौ आवै बणज मैं, सुन्दर हरि भजि आप ॥४७॥
इन से उत्तम हरिभजन : परन्तु ये उक्त तीनों ही कार्य परिणाम में दुःखदायी ही होते हैं । नौकरी में पराधीनता(गुलामी) होती है, खेती में शारीरिक कष्ट अधिक होता है, व्यापार में आर्थिक हानि का भय रहता है; परन्तु हरिभजन में न किसी की पराधीनता है, न कोई शारीरिक दुःख, न कोई व्यापारिक हानि का भय । अतः तेरा हरिभजन में लग जाना ही मङ्गलमय रहेगा ॥४७॥
.
सुख दुख छाया धूप है, सुन्दर कर्म सुभाव ।
दिन द्वै शीतल देखिये, बहुरि तप्त में पांव ॥४८॥
अरे भाई ! ये सुख दुःख तो छाया एवं धूप के समान क्षणिक(विनाशी) है तथा ये सभी कर्मों के स्वभाव से जन्य हैं । इसीलिये, तुम्हारे दो दिन सुख से बीतते हैं तो तुम दो दिन दुःख की धूप में तड़फड़ाते हो ॥४८॥
(क्रमशः)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें