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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*६. उपदेश चितावनी कौ अंग ३७/४०*
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सुंदर याही देह मैं, हारि जीति कौ खेल ।
जीतै सो जगपति मिलै, हारे माया मेल ॥३७॥
महात्मा श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - यह मानवदेह-प्राप्ति का खेल भी चौपड़ के समान ही है । यदि इसमें कोई जीतता है तो उसे भगवत्प्राप्ति होना सुनिश्चित है । यदि कोई मन्दभाग्य इसमें हार गया तो उस का इस भवसागर में डूबना उतराना(माया मोह में फंसना) ही निश्चित है ॥३७॥
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सुंदर अबकै आंपणौं, टोटौ नफौ बिचारि ।
जिनि डहकावै जगत मैं, मेल्ह्यो हाट पसारि ॥३८॥
अतः हे साधक ! तूं अपना हानि-लाभ स्वयं पहले विचार ले । ऐसा न हो कि तूं बाद में इस विस्तृत संसार में व्यवहार करता हुआ कहीं ठगा जाय ॥३८॥
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सुंदर भटक्यौ बहुत दिन, अब तू ठाहर आव ।
फेरि न कबहूं आइ है, यहु औसर यहु डाव ॥३९॥
तूं इस संसार में बहुत दिन भटक चुका ! अब तूं कहीं ठहरने का अपना मन बना; क्योंकि तूं यह भले प्रकार से समझ ले कि तुझे यह मानव देह रूप बाजी(दाव) पुनः मिलना दुर्लभ है ॥३९॥
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सुंदर दुःख न मानि तूं, तोहि कहूं उपदेश ।
अब तौ कछूक सरम गहि, धौले आये केश ॥४०॥
तूं मेरी इस बात को सुन कर कष्ट न अनुभव करना । मैं तो तुम्हें केवल सत्परामर्श दे रहा हूँ । तुझे ऐसा करते हुए अब कुछ लज्जा या संकोच का अनुभव होना चाहिये; क्योंकि अब तूं वृद्ध हो चला है । तेरे शिर के केश भी सफेद हो चुके हैं ! ॥४०॥
(क्रमशः)
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