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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*६. उपदेश चितावनी कौ अंग ३३/३६*
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सुंदर औसर कै गयें, फिरि पछितावा होइ ।
शीतल लोह मिलै नहीं, कूटौ पीटौ कोइ ॥३३॥
अरे भाई ! यह सुन्दर अवसर चूक जाने पर(मानव देह के चले जाने पर हैं) पछताता ही रह जायगा; क्योंकि ठण्ढा लोहा कभी जुड़ा नहीं करता, भले ही उस को कितना ही कूटा पीसा जाय ॥३३॥
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सुन्दर यौं ही देखतें, औसर बीत्यौ जाइ ।
अंजुरी मांहें नीर ज्यौं, किती बार ठहराइ ॥३४॥
महात्मा श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - तेरे देखते ही देखते यह शुभ अवसर तो हाथ से निकल जायगा । क्या तूं नहीं जानता कि किसी के हाथों की अंजलि में भरा हुआ जल कितने समय ठहर पाता है ! ॥३४॥ [ तु०- श्रीदादूवाणी - जाइ जनम अंजुरीको पांणी । (राग मारू, प० १५६)]
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सुंदर अब तेरी खुसी, बाजी जीति कि हारि ।
चौपड़ि कौ सौ खेल है, मनुषा देह बिचारि ॥३५॥
विजय-पराजय : इस प्रकार हे साधक ! मैंने तुमको तुम्हारी मानवदेह का महत्व अनेक दृष्टान्तों से समझा दिया । अब तूँ जैसा चाहे वैसा कर । अरे यह मनुष्यदेह की प्राप्ति तो चौपड़ का खेल है । इस में समझदार मनुष्य ही जीत पाता है । यह तूं अच्छी तरह विचार ले, समझ ले ॥३५॥
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सुंदर जीतै सो सही, डाव बिचारै कोइ ।
गाफिल होइ सु हारि कै, चालै सरबस खोइ ॥३६॥
इस चौपड़ के खेल में वही जीतेगा जो बुद्धिमत्ता के साथ प्रत्येक बाजी(दाव) लगायगा । जो इसमें प्रमाद(भूल) करेगा उस की पराजय निश्चित है । और वह इस खेल में अपना सर्वस्व(समस्त चल अचल सम्पत्ति) भी नष्ट कर देगा ॥३६॥
(क्रमशः)
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