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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*७. काल चितावनी कौ अंग ४१/४४*
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सुंदर या संसार तैं, काहि न निकसत भागि ।
सुख सोवत क्यौं बावरे, घर मैं लागी आगि ॥४१॥
अतः हे प्राणी ! तूं ऐसे मृत्युभय ग्रस्त संसार से निकल भागने की क्यों नहीं सोचता । अरे ! जो घर सब ओर से जल रहा हो उस में निर्भय होकर रहना क्या बुद्धिमत्ता मानी जायगी ॥४१॥
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काम काल त्रैलोक मैं, मारै जान सुजान ।
सुन्दर ब्रह्मा आदि दै, कीट प्रयंत बखान ॥४२॥
वासना ही मृत्यु है : इस कामवासना रूप मृत्यु ने इस संसार में, अच्छे अच्छे समझदार लोगों को, यहाँ तक कि ब्रह्मा से लगा कर कीट पर्यन्त सभी प्राणियों को, त्रस्त कर रखा है ॥४२॥
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क्रोध काल प्रत्यक्ष ही, कियौ सकल कौ नास ।
सुन्दर कौरव पांडुवा, छपन कोटि परभास* ॥४३॥
(*एतदर्थ महाभारत का वह प्रकरण द्रष्टव्य है )।
क्रोध वासना रूप मृत्यु ने भी सभी प्राणियों को प्रत्यक्ष रूप से नष्ट कर रखा है । इसी क्रोध के वश होकर विशाल अठारह अक्षौहिणी सेना के साथ कौरव एवं पाण्डव तथा प्रभास क्षेत्र में छप्पन करोड़ यादव परस्पर लड़कर मर गये ॥४३॥
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लोभ काल यौं जानिये, भरमावै जग मांहिं ।
बूडै जाइ समुद्र मैं, सुन्दर निकसै नांहिं ॥४४॥
लोभ वासना रूप मृत्यु ने भी प्राणियों को विविध प्रकार के भ्रम जाल में फंसा रखा है । इस के भ्रम में पड़कर बहुत से मनुष्य बहुमूल्य मोती, हीरा, आदि रत्नों की प्राप्ति के लोभ में पड़कर समुद्र में गोता लगाते हैं, तथा वहीं डूब कर मर जाते हैं ॥४४॥
(क्रमशः)

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