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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*९. देहात्मा बिछोह को अंग ५/८*
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सुन्दर लोग कुटंब सब, रहते सदा हजूरि ।
प्रान गये लागे कहन, काढौ घर तें दूरि ॥५॥
माता, पिता स्त्री या भाई की ही बात क्यों करें, इस के प्राण रहते हुए इस का समस्त कुटुम्ब इस के सम्मुख विनम्र भाव से खड़ा रहता था; परन्तु आज इस के प्राण निकल जाने पर, सब मिल कर एक स्वर से कह रहे हैं कि इस को शीघ्र से शीघ्र घर से बाहर(दूर) करो ॥५॥ (तु०-सवैया ग्र०, ९/३)
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देह सुरंगी तब लगै, जब लग प्राण समीप ।
जीव जोति जाती रही, सुन्दर बिदरंग दीप ॥६॥
यह देह तो तभी तक सुरूप(सुन्दर) लगती है, जब तक इस में प्राण रहते हैं । प्राणों से वियुक्त होने पर इसे कोई देखना भी नहीं चाहता । व्यवहार में भी हम देखते हैं कि ज्योतिर्मय दीपक ही सब को मनोरम लगता है । बुझे हुए दीपक को कौन देखना चाहेगा; क्योंकि अब वह बदरङ्ग(कुरूप) हो चुका है ॥६॥ (तु० - सवैया ग्र०९/१)
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चमक दमक सब मिटि गई, जीव गयौ जब आप ।
सुन्दर खाली कंचुकी, नीकसि भागौ सांप ॥७॥
इस शरीर में प्राण रहने तक ही इस शरीर की चमक दमक(आभा, कान्ति) लोगों को प्यारी लगती है । प्राण निकल जाने पर तो यह शरीर सर्प द्वारा त्यागी केंचुली(कञ्चक) के तुल्य निरर्थक ही लगता है ॥७॥
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श्रवन नैंन मुख नासिका, ज्यौं के त्यौं सब द्वार ।
सुन्दर सो नहिं देखिये, अचल चलावणहार ॥८॥
शरीर से प्राणों के निकल जाने पर भी, इस के कान, नाक, चक्षु एवं मुख आदि सभी द्वार पूर्ववत् दिखायी देते हैं, परन्तु एकमात्र वह(प्राण) नहीं दिखायी देता जो इस(शरीर) का स्थायी(अविनाशी) सञ्चालक है ॥८॥ (तु० - सवैया ग्र०, ९/६-७ ॥)
(क्रमशः)

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