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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१०. तृष्णा को अंग १३/१६*
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तृष्णा कै बसि होइ कै, डोलै घर घर द्वार ।
सुन्दर आदर मांन बिन, होत फिरै नर ख्वार ॥१३॥
ये लोग, तृष्णा के अधीन होकर, धनपतियों के घरों के द्वार द्वार पर जाकर अनादृत एवं अपमानित होते हुए घूमते रहने में भी किसी लज्जा का अनुभव नहीं करते ॥१३॥
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तृष्णा पेट पसारियौ, तृप्ति न क्यौं ही होइ ।
सुन्दर कहतैं दिन गये, लाज सरम नहिं कोइ ॥१४॥
ये तृष्णा के अधीन लोग निरन्तर अपना पेट पसारे रहते हैं, फिर भी इन को तृप्ति(सन्तोष) नहीं होती । श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - मुझे भी लोगों को समझाते हुए इतना समय हो गया; परन्तु ये निर्लज्ज लोग, मेरी तो क्या, किसी की भी कही हुई भली बात को सुनते ही नहीं ॥१४॥
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तृष्णा डोलै ताकती, स्वर्ग मृत्यु पाताल ।
सुन्दर तीनहुं लोक मैं, भर्यौ न एकहु गाल ॥१५॥
यह तृष्णा अतिशय सावधान होकर स्वर्ग, मृत्यु एवं पाताल - तीनों लोकों में निरन्तर दौड़ लगाती है कि कहीं तो उसे उसके आहार का एक ग्रास(गाला) मिले । परन्तु उसे आज तक प्राप्त अपने आहार से सन्तोष(तृप्ति) नहीं मिला ॥१५॥
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तृष्णा डाइण होइ कैं, खायौ सब संसार ।
सुन्दर संतोषी बचै, जिनके ब्रह्म बिचार ॥१६॥
इस तृष्णा ने राक्षसी बन कर समस्त संसार का भक्षण कर लिया । इस से केवल वे सन्तोष वृत्ति धारण करने वाले ज्ञानी सन्त ही बच पाये, जिनने निरञ्जन निराकार प्रभु की भक्ति में मन लगाकर इस तृष्णा डाइन की पूर्ण उपेक्षा की ॥१६॥
(क्रमशः)

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