शुक्रवार, 21 नवंबर 2025

*१०. तृष्णा को अंग ९/१२*

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१०. तृष्णा को अंग ९/१२*
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सुन्दर तृष्णा लै गई,  जहँ बन बिषम पहार । 
सिंह ब्याघ्र मारै तहाँ,  कै मारै बटपार ॥९॥
कभी यही तृष्णा उन लोभी लोगों को विषम(बीहड़) वनों में या दुर्गम पहाड़ों पर ले जाती है । वहाँ इनको या तो सिंह व्याघ्र आदि हिंसक प्राणी खा जाते हैं या डाकू लुटेरे इन का सब धन लूट लेते हैं तथा इन को मार देते हैं ॥९॥
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सुन्दर तृष्णा करत है,  सब कौ बांद गुलांम । 
हुकम कहै त्यौं ही चलै,  गनै शीत नहिं घांम ॥१०॥
महाराज सुन्दरदासजी कहते हैं - यह तृष्णा उन लोगों को अपना क्रीतदास (धन से खरीदा गया सेवक) बना लेती है । ये लोग उस की आज्ञानुसार चलने को विवश हो जाते हैं । उस समय इन को घनघोर शीत या घाम(धूप) की भी परवाह नहीं रहती ॥१०॥
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मेघ सहै आंधी सहै,  सहै बहुत तन त्रास । 
सुन्दर तृष्णा कै लियें,  करै आपनौ नास ॥११॥
ये लोग अपनी उस तृष्णापूर्ति के लोभ में न घनघोर घटाओं भयङ्कर झञ्झावातों(आँधियों) को भी तुच्छ समझते हुए अपने शरीर को भीषण कष्ट में डाल देते हैं । यहाँ तक कि, वे अपनी इस तृष्णा की पूर्ति के लोभ में अपना नाश भी कर डालते हैं ॥११॥
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सुन्दर तृष्णा के लियें,  पराधीन ह्वै जाइ। 
दुसह बचन निस दिन सहै,  यौं परहाथ बिकाइ ॥१२॥
ये लोग अपनी तृष्णा की पूर्ति के लोभ हेतु दूसरों के दास(गुलाम) हो जाते हैं । उन के असह्य कठोर वचनों को सुनते हैं । इस प्रकार, वे समस्त रूप से दूसरों के हाथ बिक जाते हैं ॥१२॥
(क्रमशः)   

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