🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
.
*११. अथ अधीर्य उरांहने को अंग १/४*
.
देह रच्यौ प्रभु भजन कौं, सुन्दर नख सिख साज ।
एक हमारी बात सुनि, पेट दियौं किंहिं काज ॥१॥
उदर निर्माणविषयक जिज्ञासा : हे प्रभो ! आप ने हमारे समस्त शरीर की नख से शिखा पर्यन्त सुन्दर विधि से अलंकृत कर रचना कर दी - यह तो आपने बहुत उचित किया; परन्तु यहाँ हमारा आप से यही पूछना है कि आपने हमारे इस शरीर में यह पेट किस प्रयोजन से लगा दिया ? ॥१॥ (अधीर्य = अधैर्य । उराहना = उपालम्भ)
.
श्रवन दिये जस सुनन कौं, नैन देखने संत ।
सुन्दर सोभित नासिका, मुख सोभन कौं दंत ॥२॥
जैसे आपने इस(शरीर) में श्रवण(कान) की रचना की तो इन से हमारा सन्तों के उपदेश सुनने का प्रयोजन सिद्ध होता है; नेत्रों से हम सन्तों के दर्शन करते हैं; नासिका से हमारे मुख की शोभा बनी हुई है; दाँतों से भी हमारे मुख की शोभा में वृद्धि ही हुई है ॥२॥
.
हाथ पांव हरि कृत्य कौं, जीभ जपन कौं नाम ।
सुन्दर ये तुम सौं लगै, पेट दियौ किंहिं काम ॥३॥
हाथ एवं पैरों से हमें आप की तथा सन्तों की सेवा करने में बहुत सहायता मिलती है; जिह्वा से आप का नाम जपते हैं । अतः हे प्रभो ! ये सब उपकरण तो आपने हमारे शरीर में उचित ही लगाये; परन्तु आपने इस शरीर में यह पेट किस प्रयोजन से लगा दिया - यह हमारी समझ में अभी तक नहीं आया ॥३॥
.
सुन्दर कीयौ साज सब, समरथ सिरजनहार ।
कौंन करी यह रीस तुम, पेट लगायौ लार ॥४॥
हे सृष्टि के समर्थ रचयिता ! आपने हमसे यह किस जन्म की शत्रुता का प्रतिशोध(बदला) लिया कि आपने हमारे शरीर में यह पेट लगा दिया ! ॥४॥
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें