गुरुवार, 27 नवंबर 2025

*११. अधीर्य उरांहने को अंग ५/८*

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*११. अधीर्य उरांहने को अंग ५/८*
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और ठौर सौं काढि मन, करिये तुम कौं भेट । 
सुन्दर क्यौं करि छूटिये, पाप लगायौ पेट ॥५॥
मन जैसी चञ्चल इन्द्रिय को भी हम अन्य विषयों से हटा कर आप के नामस्मरण में लगा देते हैं; परन्तु इस पापी पेट के विषय में तो हम भी अभी तक नहीं समझ पाये कि इस के जञ्जाल से हम कैसे छूटें ? ॥५॥
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कूप भरै बापी भरै, पूरि भरै जल ताल । 
सुन्दर प्रभु पेट न भरै, कौंन कियौ तुम ख्याल ॥६॥
उदर की दुष्पूरता : प्रभु जी ! संसार के सभी कुए, बावड़ी या बड़े से बड़े तालाब समय पाकर जल से भरे हुए देखे जाते हैं; परन्तु आपने हमारे शरीर में यह पेट ऐसा लगा दिया कि यह तो कभी भरता ही नहीं दिखायी देता ॥६॥
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नदी भरहिं नाला भरहिं, भरहिं सकल की नाड । 
सुन्दर प्रभु पेट न भरहिं, कौंन करी यह षाड ॥७॥
हे प्रभो ! संसार में सभी छोटे बड़े नदी नाले, ताल तलैया एक न एक दिन भरे हुए दिखायी दे जाते हैं; परन्तु आपने हमारे शरीर में यह पेट ऐसा विचित्र खड्डा बना दिया कि यह तो कभी भरा हुआ दिखायी ही नहीं देता ! ॥७॥
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खंदक खास बुखार पुनि, बहुरि भरहिं घर हाट । 
सुन्दर प्रभु पेट न भरहिं, भरियहि कोठी माट ॥८॥
श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं कि, हे प्रभी ! बड़ी बड़ी खंदकें(खड्डे), बुखारियाँ, दुकानें या बड़े बड़े घर या घड़े एक न एक दिन जल, धन या सांसारिक विषयभोग के साधनों से परिपूर्ण देखे जाते हैं, परन्तु इस पेट को भरा हुआ कभी नहीं देखा ! ॥८॥
(क्रमशः)  

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