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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*११. अधीर्य उरांहने को अंग ९/१२*
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चूल्हा भाठी भार महिं, इंधन सब जरि जाइ ।
त्यौं सुन्दर प्रभु पेट यह, कबहूं नहीं अघाइ ॥९॥
हे प्रभो ! आपने यह पेट तो हमारे शरीर में ऐसा लगा दिया कि इसमें बड़े बड़े चूल्हे, भट्ठियाँ इन्धन सहित जल कर भस्म हो जाती हैं परन्तु तब भी हमने इस को भरा(पूर्ण) हुआ कभी नहीं देखा ! ॥९॥
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बम्बई थलहि समुद्र मैं, पानी सकल समात ।
त्यौं सुन्दर प्रभु पेट यह, रहै खात ही खात ॥१०॥
जैसे भूमि(स्थल) पर गिरा हुआ समस्त जल बांबी(बिल) के माध्यम से समुद्र(पाताल) में समा जाता है; उसी प्रकार, इस पेट में खाया हुआ समस्त भोज्य पदार्थ पता नहीं कहाँ चला जाता है कि यह दिन रात खाता ही खाता दिखायी देता है ॥१०॥
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असुर भूत अरु प्रेत पुनि, राक्षस जिनि कौ नांव ।
त्यौं सुन्दर प्रभु पेट यह, करै खांव ही खांव ॥११॥
महाराज श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - यह पापी पेट बड़े बड़े नामी, असुर, भूत, प्रेत एवं राक्षसों के समान दिन रात "खाऊँ, खाऊँ" ही करता रहता है ॥११॥
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सुन्दर प्रभुजी पेट की, चिंता दिन अरु राति ।
सांझ खाइ करि सोइये, फिरि मांगै परभाति ॥१२॥
उदपूर्ति की चिन्ता : महाराज कहते हैं - हे प्रभो ! हम को तो दिन रात हमारी इस खाली पेट की चिन्ता ही सताती रहती है । यह सायङ्काल खाकर सोता है, तो भी प्रातः काल जागने के साथ पुनः भोजन माँगना आरम्भ कर देता है ॥१२॥
(क्रमशः)

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