सोमवार, 24 नवंबर 2025

*१०. तृष्णा को अंग १७/१९*

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१०. तृष्णा को अंग १७/१९*
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सुन्दर तोहि कितौ कह्यौ, सीख न मानी एक । 
तृष्णा तूं छाडै नहीं, गही आपनी टेक ॥१७॥ 
अयि तृष्णे ! मैंने तुझ को कितनी बार समझाया है, परन्तु तूं मेरी कहाँ कुछ बात सुनती ही नहीं है । तूँ इतनी हठी है कि तूं अपने आगे किसी की बात सुनती ही नहीं है, अपितु अपने ही दुराग्रह (जिद पर अड़ी हुई है ॥१७॥ (तु० - सवैया ग्र०, ५/१२)
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तृष्णा तूं बौरी भई, तोकौं लागी बाइ । 
सुन्दर रोकी नां रहै, आगै भागी जाइ ॥१८॥
अयि तृष्णे ! तूं तो पागल हो गयी है, ज्ञात होता है तुझको किसी भूत प्रेत की बाधा लग गयी है । तूँ निषेध करने पर भी रुकती नहीं है, अपितु लोभ के वश हो कर आगे से आगे भागती जा रही है ॥१८॥
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सुन्दर तृष्णा बहु बधी, धर्यौ बडौ अति देह । 
अध ऊरध दश हूं दिशा, कहूं न तेरौ छेह ॥१९॥
महाराज श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - अरी तृष्णे ! तूँ बहुत आगे बढ़ती जा रही है ! इसी कारण तेरा शरीर भी अब भारी भरकम(बोझ वाला) हो गया है । किधर से(किसी दिशा से) भी तेरा अन्त नहीं दिखायी दे रहा है ॥१९॥
(क्रमशः) 

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