सोमवार, 24 नवंबर 2025

*१०. तृष्णा को अंग २०/२२*

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१०. तृष्णा को अंग २०/२२*
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सुन्दर तृष्णा डाइनी, डाकी लोभ प्रचंड ।
दोऊ काढैं आंखि जब, कंपि उठै ब्रह्मंड ॥२०॥
अयि तृष्णे ! तूँ अपने इस विकराल रूप में राक्षसी के समान लग रही है । तेरा लोभ भी अतिशय डाकी(पेटू = बहुत अधिक खाने वाला) है । तथा तेरा क्रोध इतना भयङ्कर है कि जब तू क्रोध से अपनी आँखें निकालकर लोगों को दिखाती है तब समग्र ब्रह्माण्ड भय से काँप उठता है ॥२०॥
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सुंदर तृष्णा भांडिनी, लोभ बडौ अति भांड । 
जैसौ ही रंडुवौ मिल्यौ, तैसी मिलि गई रांड ॥२१॥
श्रीसुन्दरदासजी महाराज कहते हैं - अयि तृष्णे ! तूँ तो बहुत चतुर विदूषक(मजाकिया) लगती है, तथा तेरा यह लोभ तुझ से भी बढ़कर(विशेष) भांड है । तुम दोनों की जोड़ी देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि तुझ रांड(वेश्या) को तेरे ही समान यह रंडुवा(वेश्यागामी) मिल गया ॥२१॥
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सुंदर तृष्णा कोढनी, कोढी लोभ भ्रतार । 
इनकौं कबहुं न भींटिये, कोढ लगै तन ख्वार ॥२२॥
महाराज श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - यह तृष्णा घृणित कुष्ठ रोग से ग्रस्त के समान है और इस का पति लोभ भी कुष्ठ रोगी ही है । किसी भले(रूपवान्) पुरुष को इन दोनों का स्पर्श भी नहीं करना चाहिये; अन्यथा इन का स्पर्श करने वालों को भी यह घृणित कुष्ठ रोग लग जायगा, उससे उन का रूपवान् शरीर भी विकृत हो जायगा ॥२२॥
(क्रमशः) 

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