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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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९ आचार्य जीवनदास जी
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अलवर नरेश जब भी आचार्य जीवनदासजी महाराज के पास आते थे तब आचार्य जी के सामने फर्श पर बैठकर के ही शास्त्र चर्चा करते थे । आचार्यजी के सामने राजा आसन पर नहीं विराजते थे ।
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अलवर नरेश आचार्य जी से पूर्ण परिचित थे । कारण अलवर नरेश ने आचार्य निर्भयरामजी महाराज का मेला किया था और राजगढ में ही आपको आचार्य पद पर अभिषिक्त किया था । अत: अलवर नरेश आचार्य जी से पूर्व परिचित होने से इनकी संतता को पहचानते थे, इससे इन पर बहुत श्रद्धा रखते थे । इनके सामने आसन पर नहीं बैठते थे ।
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उक्त प्रकार अलवर नरेश महाराज से निशंक होकर प्रश्नोत्तर का लाभ लेते थे । फिर आचार्य जी अलवर से पधारने लगे तब राजा ने आने जाने का सब खर्च भन्डारी जी को दिया और आचार्य जीवनदासजी महाराज के एक हाथी और एक दुशाला भेंट किया तथा कुछ द्रव्य नारायणा दादूधाम के सदाव्रत के लिये दिया । फिर बहुत सम्मान के साथ अलवर नरेश ने तथा अलवर की जनता ने आपको विदा किया ।
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फिर आप अपने दर्शन सत्संग से मार्ग के लोगों का भला करते हुये नारायणा दादूधाम में पधार गये । यहाँ भी प्रतिदिन दादूवाणी की कथा, कीर्तन, आरती दैनिक कार्यक्रम सदा ही चलते रहते थे । यह तो नियम ही रहा है कि जहां आचार्य हो वहां दादूवाणी की कथा तो अवश्य होती ही है ।
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मेडता की रामत वि. सं. १८७७ में नारायणा दादूधाम से रामत करने मेडता की और पधारे । मार्ग के सेवक तथा धार्मिक जनता को अपने दर्शन तथा उपदेशों से कृतार्थ करते हुये मेडता पधारे । मेडता में भी नारायणा दादूधाम के समान ही साधना का क्रम रहता था ।
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प्रात: ब्राह्म मुहूर्त्त में उठकर शारीरिक क्रियाओं से निवृत होकर ब्रह्मभजन करना, प्रकाश होने पर दादूवाणी का पाठ करना फिर दादूवाणी की कथा करना तथा सुनना पश्चात् सुनी कथा का मनन करना, मध्य दिन में भोजन करना, कुछ विश्राम करके २ से ४ तक सत्संग करना फिर शारीरिक क्रिया करना, भ्रमण करना, भोजन, आरती, अष्टक, नाम संकीर्तन फिर निज २ आसन पर ब्रह्म भजन, शयन के समय ब्रह्म - भजन करते करते ही शयन करना ।
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यही क्रम आचार्यजी तथा आचार्यजी के साथ रहने वाले संत मंडल का सदा रहता था । नारायणा दादूधाम, मेडता दादूधाम रामत, चातुर्मास आदि सभी समय में उक्त साधना क्रम चलता था । वि. सं. १८७७ का चातुर्मास कान्हड दासजी ने खेतडी का मनाया था । इसलिये मेडता की रामत करके चातुर्मास के लिये खेतडी की ओर प्रस्थान किया । मार्ग के ग्रामों की धार्मिक जनता को अपने दर्शन सत्संग से पवित्र करते हुये खेतडी पहुँचे ।
(क्रमशः)

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