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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*८. नारी पुरुष श्लेष को अंग २१/२३*
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ऐसै बैसै आइ कै, कहैं बहुत ही बैंन ।
तिनकी कछु मानै नहीं, पुरुषहि होइ न चैंन ॥२१॥
इसी समय में, कुछ साधारण(ऐसे वैसे) जन भी उस चञ्चल नारी को विविध वचन कहते हैं । उन के उपदेशवचनों पर भी वह ध्यान नहीं देती । इस कारण, पुरुष के मन में, पहले की अपेक्षा अधिक व्यग्रता आ जाती है ॥२१॥
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भलौ सयानौ आइ जौ, समुझावै बहु भांति ।
कुलवंती मानै कह्यौ, सुन्दर उपजै स्वांति ॥२२॥
इस के विपरीत, कोई बुद्धिमान् सज्जन किसी कुलीन(सच्चरित्र) स्त्री को उसके किसी प्रमाद पर उचित बात समझता है तो वह उस के उचित कथन को मान कर मन में सुख एवं शान्ति का अनुभव करती है ॥२२॥
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सुन्दर नारी पुरुष की, प्रीति परस्पर जांनि ।
तब तैं संग तज्यौ नहीं, जब तैं पकरी पांनि ॥२३॥
ऐसी पतिव्रता स्त्री ने, अपने पति के हार्दिक स्नेह को पहचान कर, उसका साथ तब से कभी नहीं छोड़ा जब से उस(पति) ने(विवाह के समय) उस का हाथ(पाणि) पकड़ा था ॥२३॥
(क्रमशः)

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