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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*११. अधीर्य उरांहने को अंग १७/१९*
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सुंदर प्रभुजी पेट यह, राखै कछू न मांन ।
बन मैं बैठे जाइ कैं, उठि भागै मध्यांन ॥१७॥
हे प्रभो ! यह पेट किसी का भी मान सम्मान सुरक्षित नहीं रहने देता । इस ने बड़े बड़े योगी ध्यानियों को भी अपनी साधना से, आधे मार्ग में पहुँचते पहुँचते ही(मध्याह्न में ही), भगा दिया है ॥१७॥
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सुन्दर प्रभुजी पेट बसि, चौरासी लख जंत ।
जल थल कै चाहैं सकल, जे आकाश बसंत ॥१८॥
सम्पूर्ण जगत् पेट के अधीन : हे प्रभो ! संसार के ये सभी चौरासी लाख जीव जन्तु, फिर भले ही वे जलचर हों, या स्थलचर हों, या आकाशचारी ही क्यों न हों, सभी इस पेट के अधीन दिखायी देते हैं ॥१८॥
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सुन्दर प्रभुजी पेट इनि, जगत कियौ सब भांड ।
कोई पंचामृत भखै, कोई पतरा मांड ॥१९॥
पेट के कारण पाषण्ड : हे प्रभो ! इस पेट ने सभी प्राणियों को पाषण्ड से जीवित रहने के लिये बाध्य कर दिया है । इन में सभी पाषण्ड करते हुए कोई केवल पञ्चामृत पीकर तपस्या का अभिनय कर रहा है तो कोई चावल का मांड पीकर साधना का ढोंग कर रहा है ॥१९॥
(क्रमशः)

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