मंगलवार, 23 दिसंबर 2025

रामबगस जी महाराज

*#daduji*
*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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११ आचार्य प्रेमदासजी ~ 
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बहुत वर्षों के पीछे कुछ संतों को यात्रा करते हुये रामबगस जी महाराज का दर्शन भी हुआ । संतों ने नारायणा दादूधाम की घटना भी सुनाई किन्तु वे तो परम विरक्त थे सुनकर कुछ भी नहीं बोले । उनकी आयु भ्रमण करते हुये ब्रह्म भजन में ही व्यतीत हुई थी । 
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वे परम विरक्त महात्मा थे । अधिक कहीं भी नहीं ठहरते थे और मधुकरी से अपना निर्वाह करते थे । अधिक उपदेश भी नहीं करते थे, उनकी मनोवृति निरंतर ब्रह्म भजन में ही लीन रहती थी । जहां वे अल्प समय भी ठहरने थे वहां भी एकान्त स्थान में ही ठहरते थे । जनसमुदाय से सदा दूर रहते थे । 
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एकाकी रहने में ही वे आनन्द मानते थे । कारण उनका भजन निरंतर चलता रहता था । दूसरे के साथ बातें करने में भजन में विध्न होता था । यथालाभ में संतुष्ट रहते थे । मधुकरी छोडकर अन्य किसी भी प्रकार की याचना वे नहीं करते थे । पूरे तितिक्षिु संत थे । उक्त प्रकार विचरते हुये फिर वे हरमाडा ग्राम में आकर स्थायी रुप से रहने लग गये थे । 
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हरमाडा में ग्राम के मध्य का स्थान उनका ही है । प्रारब्ध समाप्त होने से उनका देह दंड के समान गिर गया होगा । उन्होंने देह का त्याग भी कहीं पर्वत वन आदि स्थान में ही किया होगा । क्योंकि वे दादूजी महाराज के वचनों में पूर्ण श्रद्धा रखने वाले और दादूजी महाराज के उपदेशों के अनुसार रहने वाले थे । अत: दादूजी के निम्न वचन को याद रखकर ही देह छोडा होगा -
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“हरि भज साफल जीवना, परोपकार समाय ।
दादू मरणा तहँ भला, जहँ पशु पक्षी खाय ॥१॥”
ऐसे परम विरक्त महात्माओं के दर्शन दुर्लभ ही होते हैं । भाग्य बिना नहीं मिलते । अनेक जन्मों के पुण्य उदय होने पर विरक्त और भजनानन्दी संत मिलते हैं । रामबगस जी महाराज अल्पकाल गद्दी पर रहे तथा उन्होंने अपने को आचार्य भी नहीं माना था । गुरुजी की आज्ञा और समाज के आग्रह से वे कुछ दिन बिना इच्छा ही आचार्य पद पर रहे थे । अत: उनको आचार्यों की गणना में नहीं मानकर उनके छोटे गुरु भाई प्रेमदासजी को ही आचार्य माना गया है ।
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गुण गाथा ~ दोहा - 
रामबगस महाराज का, जीवन है आदर्श ।
विरक्त संत जन के लिये, किया न भोग स्पर्श ॥१॥
रामबगस रमते रहे, रहे एक थल नांहिं । 
ब्रह्म भजन कर रात दिन, मिले ब्रह्म के मांहिं ॥२॥
भोग वासना में फंसे, नरतन व्यर्थ गमाय ।
रामबगस सम संत का, जीवन सफल कहाय ॥३॥
‘नारायण’ नरदेह का, लाभ वही नर पाय ।  
रामबगस सम राम में, प्रतिक्षण मन को लाय ॥४॥
(क्रमशः)

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