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*सबै सयाने कह गये, पहुँचे का घर एक ।*
*दादू मार्ग माहिं ले, तिन की बात अनेक ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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स्वामीजी ने न्यूयार्क में ९ जनवरी १८९६ ई. को 'सार्वभौमिक धर्म का आदर्श' (Ideal of a Universal Religion) नामक विषय पर एक भाषण दिया था
- अर्थात् जिस धर्म में ज्ञानी, भक्त, योगी या कर्मी सभी सम्मिलित हो सकते हैं । भाषण समाप्त करते समय उन्होंने कहा कि ईश्वर का दर्शन ही सब धर्मों का उद्देश्य है, - ज्ञान, कर्म, भक्ति ये सब विभिन्न पथ तथा उपाय हैं, परन्तु गन्तव्य स्थान एक ही है और वह है ईश्वर का साक्षात्कार ।
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स्वामीजी ने कहा – “....इन सब विभिन्न योगों को हमें कार्य में परिणत करना ही होगा; केवल उनके सम्बन्ध में जल्पना-कल्पना करने से कुछ न होगा । 'श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः ।' पहले उनके सम्बन्ध में सुनना पड़ेगा - फिर श्रुत विषयों पर चिन्ता करनी होगी ... । इसके बाद उनका ध्यान और उपलब्धि करनी पड़ेगी - जब तक कि हमारा समस्त जीवन तद्भाव भावित न हो उठे । तब धर्म हमारे लिए केवल कतिपय धारणा, मतवादसमष्टि अथवा कल्पना रूप ही नहीं रहेगा ।
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भ्रमात्मक ख्याल से आज हम अनेक मूर्खताओं को सत्य समझकर ग्रहण करके कल ही शायद सम्पूर्ण मत परिवर्तन कर सकते हैं, पर यथार्थ धर्म कभी परिवर्तित नहीं होता । धर्म अनुभूति की वस्तु है - वह मुख की बात, मतवाद अथवा युक्तिमूलक कल्पना मात्र नहीं है - चाहे वह जितना ही सुन्दर हो, वह केवल सुनने या मान लेने की चीज नहीं है । आत्मा की ब्रह्मस्वरूपता को जान लेना, तद्रूप हो जाना, उसका साक्षात्कार करना - यही धर्म है । ...."
- 'धर्मरहस्य' से उद्धृत
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मद्रासियों के पास उन्होंने जो पत्र लिखा था, उसमें भी वही बात थी,
- हिन्दू धर्म की विशेषता है ईश्वर-दर्शन,
- वेद का मुख्य उद्देश्य है ईश्वर दर्शन -
"... हिन्दू धर्म में एक भाव संसार के अन्य धर्मों की अपेक्षा विशेष है । उसके प्रकट करने में ऋषियों ने संस्कृत भाषा के प्रायः समग्र शब्द-समूह को. निःशेष कर डाला है । वह भाव यह है कि मनुष्य को इसी जीवन में ईश्वर की प्राप्ति करनी होगी... । इस प्रकार, द्वैतवादियों के मतानुसार ब्रह्म की उपलब्धि करना, ईश्वर का साक्षात्कार करना, या अद्वैतवादियों के कहने के अनुसार ब्रह्म हो जानना- यही वेदों के समस्त उपदेशों का एकमात्र लक्ष्य है ..."
-'हिन्दू धर्म के पक्ष में' से उद्धृत
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स्वामीजी ने २९ अक्टूबर, सन् १८९६ में लन्दन में भाषण दिया था, विषय था - ईश्वर-दर्शन (Realisation)। इस भाषण में उन्होंने कठोपनिषद् का उल्लेख कर नचिकेता की कथा सुनायी थी । नचिकेता ईश्वर का दर्शन करना चाहते थे । धर्मराज यम ने कहा, "भाई, यदि ईश्वर को जानना चाहते हो, देखना चाहते हो, तो भोगासक्ति को त्यागना होगा । भोग रहते योग नहीं होता, अवस्तु से प्रेम करने पर वस्तु की प्राप्ति नहीं होती ।"
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स्वामीजी ने कहा था – "... हम सभी नास्तिक हैं, परन्तु जो व्यक्ति उसे स्पष्ट स्वीकार करता है, उससे हम विवाद करने को प्रस्तुत होते हैं । हम लोग सभी अन्धकार में पड़े हुए हैं । धर्म हम लोगों के समीप मानो कुछ नहीं है, केवल विचारलब्ध कुछ मतों का अनुमोदन मात्र है, केवल मुँह की बात है - अमुक व्यक्ति खूब अच्छी तरह से बोल सकता है, अमुक व्यक्ति नहीं बोल सकता .... । आत्मा की जब यह प्रत्यक्षानुभूति आरम्भ होगी, तभी धर्म आरम्भ होगा । उसी समय तुम धार्मिक होगे ... । उसी समय प्रकृत विश्वास का - आस्तिकता का – उदय होगा । ..."
-'ज्ञानयोग' से उद्धृत
(क्रमशः)
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